"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-11": अवतरणों में अंतर

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== अड़तालीसवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
==अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद </div>


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: अड़तालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद </div>
वर्णसंकर संतानों की उत्‍पत्ति का विस्‍तार से वर्णन।


वर्णसंकर संतानों की उत्‍पत्ति का विस्‍तार से वर्णन।
युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्‍च वर्ण की स्‍त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्‍पन्‍न होती है। वर्णों का निश्‍चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्‍पत्ति होती है। इस रीति से जो वर्णों के मिश्रण द्वारा उत्‍पन्‍न हुए जो मनुष्‍य हैं, उनका क्‍या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी ने कहा-बेटा! पूर्वकाल में प्रजापति ने यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राहामण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ –ब्राहामणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राहामण ही उत्‍पन्‍न होता है और शेष दो वैश्‍या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं, वे ब्राहामण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं। शूद्राके गर्भ से उत्‍पन्‍न हुआ ब्राहामण का ही जो पुत्र है, वह शव से अर्थात शूद्र से पर-उत्‍कृष्‍ट बताया गया है; इसीलिये ॠषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुल की सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचार का कभी परित्‍याग नहीं करना चाहिये। शूद्रापुत्र सभी उपयों का विचार करके अपनी कुल-परम्‍परा का उद्धार करे। वह अवस्‍था में ज्‍येष्‍ठ होने पर भी ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्‍य की अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अत: उसे त्रैवर्णिकों की सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये।।क्षत्रिय की क्षत्रिया, वैश्‍या और शुद्रा-ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमें से क्षत्रिया और वैश्‍या के गर्भ से क्षत्रिय के सम्‍पर्क से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शुद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शुद्र ही उत्‍पन्‍न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्‍त्र का कथन है।वैश्‍य की दो भार्याएँ होती हैं- वैश्‍या और शुद्रा। उन दोनों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह वैश्‍य ही होता है। शु्द्र की एक ही भार्या होती है शुद्रा, जो शुद्र को ही जन्‍म देती है। अत: वर्णों में नीचे दर्जे का शुद्र यदि गुरुजनों-ब्राहामण, क्षत्रिय, और वैश्‍यों की स्त्रियों के साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णों द्वारा निन्दित वर्णबहिष्‍कृत (चाण्‍डाल आदि) को जन्‍म देता है। क्षत्रिय ब्राहामणों के साथ समागम करने पर उसके गर्भ से ‘सूत’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो वर्णबहिष्‍कृत और स्‍तुति-कर्म करने वाला (एवं रथी का काम करने वाला) होता है। उसी प्रकार वैश्‍य यदि ब्राहाणी के साथ समागम करे तो वह संस्‍कारभ्रष्‍ट ‘वैदेहक’ जाति वाले पुत्र को उत्‍पन्‍न करता है, जिससे अन्‍त:पुर की रक्षा आदि का काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्‍य‘ भी कहते हैं। इसी तरह शूद्र ब्राहाणी के साथ समागम करके अत्‍यन्‍त भयंकर चाण्‍डाल को जन्‍म देता है, जो गाँव के बाहर बसता है और वध्‍य पुरुषों को प्राणदण्‍ड आदि देने का काम करता है। प्रभो! बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर! ब्राहामणी के साथ नीच पुरुषों का संसर्ग होने पर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं।
युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्‍च वर्ण की स्‍त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्‍पन्‍न होती है। वर्णों का निश्‍चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्‍पत्ति होती है। इस रीति से जो वर्णों के मिश्रण द्वारा उत्‍पन्‍न हुए जो मनुष्‍य हैं, उनका क्‍या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी ने कहा-बेटा! पूर्वकाल में प्रजापति ने यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राहामण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ –ब्राहामणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राहामण ही उत्‍पन्‍न होता है और शेष दो वैश्‍या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं, वे ब्राहामण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं। शूद्राके गर्भ से उत्‍पन्‍न हुआ ब्राहामण का ही जो पुत्र है, वह शव से अर्थात शूद्र से पर-उत्‍कृष्‍ट बताया गया है; इसीलिये ॠषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुल की सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचार का कभी परित्‍याग नहीं करना चाहिये। शूद्रापुत्र सभी उपयों का विचार करके अपनी कुल-परम्‍परा का उद्धार करे। वह अवस्‍था में ज्‍येष्‍ठ होने पर भी ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्‍य की अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अत: उसे त्रैवर्णिकों की सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये।।क्षत्रिय की क्षत्रिया, वैश्‍या और शुद्रा-ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमें से क्षत्रिया और वैश्‍या के गर्भ से क्षत्रिय के सम्‍पर्क से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शुद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शुद्र ही उत्‍पन्‍न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्‍त्र का कथन है।वैश्‍य की दो भार्याएँ होती हैं- वैश्‍या और शुद्रा। उन दोनों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह वैश्‍य ही होता है। शु्द्र की एक ही भार्या होती है शुद्रा, जो शुद्र को ही जन्‍म देती है। अत: वर्णों में नीचे दर्जे का शुद्र यदि गुरुजनों-ब्राहामण, क्षत्रिय, और वैश्‍यों की स्त्रियों के साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णों द्वारा निन्दित वर्णबहिष्‍कृत (चाण्‍डाल आदि) को जन्‍म देता है। क्षत्रिय ब्राहामणों के साथ समागम करने पर उसके गर्भ से ‘सूत’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो वर्णबहिष्‍कृत और स्‍तुति-कर्म करने वाला (एवं रथी का काम करने वाला) होता है। उसी प्रकार वैश्‍य यदि ब्राहाणी के साथ समागम करे तो वह संस्‍कारभ्रष्‍ट ‘वैदेहक’ जाति वाले पुत्र को उत्‍पन्‍न करता है, जिससे अन्‍त:पुर की रक्षा आदि का काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्‍य‘ भी कहते हैं। इसी तरह शूद्र ब्राहाणी के साथ समागम करके अत्‍यन्‍त भयंकर चाण्‍डाल को जन्‍म देता है, जो गाँव के बाहर बसता है और वध्‍य पुरुषों को प्राणदण्‍ड आदि देने का काम करता है। प्रभो! बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर! ब्राहामणी के साथ नीच पुरुषों का संसर्ग होने पर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं। वैश्‍य के द्वारा क्षत्रिय जाति की स्‍त्री के गर्भ से उत्‍पन्‍न होने वाला पुत्र वन्‍दी और मागध कहलाता है। वह लोगों की प्रशसा करके अपनी जीविका चलाता है। इसी प्रकार यदि शूद्र क्षत्रिय जाति की स्‍त्री के साथ प्रतिलोम समागम करता है तो उससे मछली मारने वाले निषाद जाति की उत्‍पति होती है, और शुद्र यदि वैश्‍य जाति की स्‍त्री के साथ ग्राम्‍यधर्म (मैथून) का आश्रय लेता है तो उससे ‘आयोगव’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न होता है जो बढ़ई का काम करके अपने कमाये हुए धन से जीवन का निर्वाह करता है।ब्राहामणों को उससे दान नहीं लेना चाहिये। ये वर्णसंकर भी जब अपनी ही जाति की स्‍त्री के साथ समागम करते हैं, तब अपने ही समान वर्ण वाले पुत्रों को जन्‍म देते हैं और जब अपने से हीन जाति की स्‍त्री से संसर्ग करते हैं, तब नीच संतानों की उत्‍पति होती है। ये संतानें अपनी माता की जाति की समझी जाती हैं। जैसे चार वर्णों में से अपने और अपने से एक वर्ण नीचे की स्त्रियों से उत्‍पन्‍न किये जाने वाले पुत्र प्रधान वर्ण से ब्राहय-माता की जाति वाले होते हैं, उसी प्रकार ये नौ-अम्‍बष्‍ठ, पारशव, उग्र, सूत, वैदेहक, चाण्‍डाल, मागध,निषाद और आयोगव-अपनी जाति में और अपने-से नीचे वाली जाति में जब संतान उत्‍पन्‍न करते हैं, तब वह संतान पिता की ही जाति वाली होती है और जब एक जाति का अन्‍तर देकर नीचे की जातियों में संतान उत्‍पन्‍न करते हैं, तब वे संताने पिता की जाति से हीन माताओं की जाति वाली होती है। इस‍ प्रकार वर्णसंकर मनुष्‍य भी समान जाति की स्त्रियों में अपने ही समान वर्ण वाले पुत्रों की उत्‍पति करते हैं और यदि परस्‍पर विभिन्‍न जाति की स्त्रियों से उनका संसर्ग होता है तो वे अपनी अपेक्षा भी निन्‍दनीय संतानों को ही जन्‍म देते हैं। जैसे शुद्र ब्राहामणी के गर्भ से चाण्‍डाल नामक बाहय(वर्ण-बहिष्‍कृत) पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, उसी प्रकार उस ब्राहय जाति का मनुष्‍य भी ब्राहामण आदि चारों वर्णों की एवं बाह्यतर जाति की स्त्रियों के साथ संसर्ग करके अपनी अपेक्षा भी नीच जातिवाला पुत्र पैदा करता है। इस तरह ब्राहय और ब्राह्तर जातिकी स्त्रियों से समागम करने पर प्रतिलोम वर्ण संकरों की सृष्टि बढ़ती जाती है। क्रमश: हीन-से-हीन जाति के बालक जन्‍म लेने लगते हैं। इन संकर जातियोंकी संख्‍या सामान्‍यत: पंद्रह है। अगम्‍या स्‍त्री के साथ समागम करने पर वर्णसंकर संतान की उत्‍पत्ति होती है। मागध जाति की सैरन्‍ध्री स्त्रियों से यदि ब्राहयजातिय पुरुषों का संसर्ग हो तो उससे जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है वह राजा आदि पुरुषों के श्रृंगार करने तथा उनके शरीर में अंगराग लगाने आदि की सेवाओं का जानकार होता है और दास न होकर भी दासवृति से जीवन निर्वाह करनेवाला होता है। मागधों के आवान्‍तर भेद सैरन्‍ध्र जाति की स्‍त्री से यदि आयोगव जाति का पुरुष समागम करे तो वह आयोगव जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो जंगलों में जाल बिछाकर पशुओं को फँसाने का काम करके जीवन निर्वाह करता है। उसी जाति की स्‍त्री के साथ यदि वैदेह जाति का पुरुष समागम करता है तो वह मदिरा बनाने वाले मैरेयक जाति के पुत्र को जन्‍म देता है।


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 47 श्लोक 31-61|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 48 श्लोक 21-50}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 51-61|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 12-20}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०८:०४, ६ अगस्त २०१५ का अवतरण

अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

वर्णसंकर संतानों की उत्‍पत्ति का विस्‍तार से वर्णन।

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्‍च वर्ण की स्‍त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्‍पन्‍न होती है। वर्णों का निश्‍चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्‍पत्ति होती है। इस रीति से जो वर्णों के मिश्रण द्वारा उत्‍पन्‍न हुए जो मनुष्‍य हैं, उनका क्‍या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी ने कहा-बेटा! पूर्वकाल में प्रजापति ने यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राहामण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ –ब्राहामणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राहामण ही उत्‍पन्‍न होता है और शेष दो वैश्‍या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं, वे ब्राहामण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं। शूद्राके गर्भ से उत्‍पन्‍न हुआ ब्राहामण का ही जो पुत्र है, वह शव से अर्थात शूद्र से पर-उत्‍कृष्‍ट बताया गया है; इसीलिये ॠषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुल की सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचार का कभी परित्‍याग नहीं करना चाहिये। शूद्रापुत्र सभी उपयों का विचार करके अपनी कुल-परम्‍परा का उद्धार करे। वह अवस्‍था में ज्‍येष्‍ठ होने पर भी ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्‍य की अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अत: उसे त्रैवर्णिकों की सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये।।क्षत्रिय की क्षत्रिया, वैश्‍या और शुद्रा-ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमें से क्षत्रिया और वैश्‍या के गर्भ से क्षत्रिय के सम्‍पर्क से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शुद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शुद्र ही उत्‍पन्‍न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्‍त्र का कथन है।वैश्‍य की दो भार्याएँ होती हैं- वैश्‍या और शुद्रा। उन दोनों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह वैश्‍य ही होता है। शु्द्र की एक ही भार्या होती है शुद्रा, जो शुद्र को ही जन्‍म देती है। अत: वर्णों में नीचे दर्जे का शुद्र यदि गुरुजनों-ब्राहामण, क्षत्रिय, और वैश्‍यों की स्त्रियों के साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णों द्वारा निन्दित वर्णबहिष्‍कृत (चाण्‍डाल आदि) को जन्‍म देता है। क्षत्रिय ब्राहामणों के साथ समागम करने पर उसके गर्भ से ‘सूत’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो वर्णबहिष्‍कृत और स्‍तुति-कर्म करने वाला (एवं रथी का काम करने वाला) होता है। उसी प्रकार वैश्‍य यदि ब्राहाणी के साथ समागम करे तो वह संस्‍कारभ्रष्‍ट ‘वैदेहक’ जाति वाले पुत्र को उत्‍पन्‍न करता है, जिससे अन्‍त:पुर की रक्षा आदि का काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्‍य‘ भी कहते हैं। इसी तरह शूद्र ब्राहाणी के साथ समागम करके अत्‍यन्‍त भयंकर चाण्‍डाल को जन्‍म देता है, जो गाँव के बाहर बसता है और वध्‍य पुरुषों को प्राणदण्‍ड आदि देने का काम करता है। प्रभो! बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर! ब्राहामणी के साथ नीच पुरुषों का संसर्ग होने पर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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