"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-19": अवतरणों में अंतर

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==सरसठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
==सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: सरसठवाँ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद </div>


अन्‍न और जल के दान की महिमा
अन्‍न और जल के दान की महिमा
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें सरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>\
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें सरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>\


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 66 श्लोक 32-65|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 68 श्लोक 1-34}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 44-65|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-19}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:५१, ७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अन्‍न और जल के दान की महिमा युधिष्ठिर ने पूछा- तात्। भरतनन्दन । आपने जो दानों का फल बताया है, उसे मैंने सुन लिया। यहां अन्नदान की विशेष रूप से प्रशंसा की गयी है पितामह। अब जलदान करने से कैसे महान फल की प्राप्ति होती है, इस विषय को मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं । भीष्मजी कहते हैं- सत्यपराक्रमी भरत श्रेष्ठ। मैं तुम्हें सब कुछ यथार्थ रूप से बताऊंगा। तुम आज यहां मेरे मुंह से इन सब बातों को सुनो । अनघ। जलदान से लेकर सब प्रकार के दानों का फल मैं तुम्हें बताऊंगा। मनुष्य अन्न और जल का दान करने जिस फल को पाता है, वह सुनो। तात। मेरे मन में यह धारणा है कि अन्न और जल के दान से बढ़कर कोई दूसरा दान नहीं है; क्योंकि अन्न से ही सब प्राणी उत्पन्न होते और जीवन धारण करते हैं। इसलिये लोक में तथा सम्पूर्ण मनुष्यों में अन्न को ही सबसे उत्तम बताया गया है। अन्न से ही सदा प्राणियों के तेज और बल की वृद्वि होती है; अतः प्रजापति ने अन्न के दान को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है। कुन्तीनन्दन। तुमने सावित्री के शुभ वचन को भी सुना है। महामते। देवताओं के यज्ञ में जिस हेतु से और जिस प्रकार जो वचन सावित्री ने कहा था, वह इस प्रकार है-‘जिस मनुष्य ने यहां किसी को अन्न दिया है, उसने मानो प्राण दे दिये और प्राणदान से बढ़कर इस संसार में दूसरा कोई दान नहीं है।’ महाबाहो। इस विषय में तुमन लोमशका भी वचन सुना ही है। प्रजानाथ। पूर्वकाल में राजा शिबि ने कबूतर के लिये प्राणदान देकर जो उत्तम गति प्राप्त की थी, ब्राह्माण को अन्न देकर दाता उसी गति को प्राप्त कर लेता है । कुरूश्रेष्ठ। अतः प्राणदान करने वाले पुरूष श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं- ऐसा हमने सुना है। किंतु अन्न भी जल से ही पैदा होता है। जलराशि से उत्पन्न हुए धान्य के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। महाराज। ग्रहों के अधिपति भगवान सोम जल से ही प्रकट हुए हैं। प्रजानाथ। अमृत, सुधा, स्वाहा, स्वधा, अन्न, ओषधि, तृण और लताऐं भी जल से उत्पन्न हई हैं, जिनसे समस्त प्राणियों के प्राण प्रकट एवं पुष्ट होते हैं। देवताओं का अन्न अमृत, नागों का अन्न सुधा, पितरों का अन्न स्वधा और पशुओं का अन्न तृण-लता आदि है। मनीषी पुरूषों ने अन्न को ही मनुष्यों का प्राण बताया है। पुरूषसिंह। सब प्रकार का अन्न (खाद्य पदार्थ) जल से ही उत्पन्न होता है; अतः जलदान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसे प्रतिदिन जलदान करना चाहिये। जलदान इस जगत् में धन, यश और आयु की वृद्वि करने वाला बताया जाता है। कुन्तीनन्दन। जलदान करने वाला पुरूष सदा अपने शत्रुओं से भी ऊपर रहता है।वह इस जगत में सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय कीर्ति को प्राप्त करता है और सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। मृत्यु के पश्चात वह अक्षय सुख का भागी होता है। महातेजस्वी पुरूषसिंह। जलदान करने वाला पुरूष स्वर्ग में जाकर वहां के अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त करता है-ऐसा मनु ने कहा है ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें सरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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