"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 38" के अवतरणों में अंतर

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इसका बाह्य पहलू जगत्-जीवन और मानव जीवन है जो लड़ते-भिड़ते और मारते-काटते हुए आगे बढ़ते हैं अंतरंग पहलू है विराट् पुरुष जो विराट् सर्जन और विराट् संहार के द्वारा अपने-आपको पूर्ण करते हैं। जीवन एक युद्ध है, संहार-क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है; ये भगवान् महारुद्र हैं, यही दर्शन अर्जुन को उस समरभूमि में हुआ था। हेराक्लिटस का कहना है कि, युद्ध सब वस्तुओं का जनक है, युद्ध सबका राजा है। इस ग्रीक तत्ववेत्ता के अन्य सूत्र-वचनों के समान यह सूत्र-वचन भी एक बड़े गंभीर सत्य का सूचक है। जड़-प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत् की प्रत्येक वस्तु जनमती हुई प्रतीत होती है; शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धांतों और प्राणियों के परस्पर-संघर्ष ये यह जगत् आगे बढ़ता दीखता है, सदा नये पदार्थ उत्पन्न करते हुए और पुराने नष्ट करते हुए यह आगे बढ़ा चला जा रहा है- किधर जा रहा है, किसी को ठीक पता नहीं; कोई कहते हैं यह अपने संपूर्ण नाश की ओर जा रहा है; और कोई कहते हैं यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है और इन चक्करों का कोई अंत नहीं; आशावाद का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ये चक्कर प्रगतिशील है और हर चक्कर के साथ जगत् अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है, रास्तें में वह चाहे जो कष्ट और गड़बड़ दीख पड़े, पर यह जगत् बराबर किसी दिव्य अभीष्ट-सिद्धि कि अधिकाधिक समीप जा रहा है। यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहां संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर-विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतान ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर हम अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों जीवन को न निगलते रहें तब तक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता। हमारा शारिरीक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मरकर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इस पर आक्रमण करती और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरे को खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है। सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों के अपने अंदर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत् का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और संरक्षण का नियम है।“ प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया। अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया। ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी-चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं।  
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इसका बाह्य पहलू जगत्-जीवन और मानव जीवन है जो लड़ते-भिड़ते और मारते-काटते हुए आगे बढ़ते हैं अंतरंग पहलू है विराट् पुरुष जो विराट् सर्जन और विराट् संहार के द्वारा अपने-आपको पूर्ण करते हैं। जीवन एक युद्ध है, संहार-क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है; ये भगवान् महारुद्र हैं, यही दर्शन अर्जुन को उस समरभूमि में हुआ था। हेराक्लिटस का कहना है कि, युद्ध सब वस्तुओं का जनक है, युद्ध सबका राजा है। इस ग्रीक तत्ववेत्ता के अन्य सूत्र-वचनों के समान यह सूत्र-वचन भी एक बड़े गंभीर सत्य का सूचक है। जड़-प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत् की प्रत्येक वस्तु जनमती हुई प्रतीत होती है; शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धांतों और प्राणियों के परस्पर-संघर्ष ये यह जगत् आगे बढ़ता दीखता है, सदा नये पदार्थ उत्पन्न करते हुए और पुराने नष्ट करते हुए यह आगे बढ़ा चला जा रहा है- किधर जा रहा है, किसी को ठीक पता नहीं; कोई कहते हैं यह अपने संपूर्ण नाश की ओर जा रहा है; और कोई कहते हैं यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है और इन चक्करों का कोई अंत नहीं; आशावाद का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ये चक्कर प्रगतिशील है और हर चक्कर के साथ जगत् अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है, रास्तें में वह चाहे जो कष्ट और गड़बड़ दीख पड़े, पर यह जगत् बराबर किसी दिव्य अभीष्ट-सिद्धि कि अधिकाधिक समीप जा रहा है।<br />
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यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहां संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर-विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतान ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर हम अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों जीवन को न निगलते रहें तब तक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता। हमारा शारिरीक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मरकर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इस पर आक्रमण करती और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरे को खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है। सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों के अपने अंदर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत् का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और संरक्षण का नियम है।“ प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया। अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया। ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी-चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं।  
  
 
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०६:३३, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
5.कुरुक्षेत्र

इसका बाह्य पहलू जगत्-जीवन और मानव जीवन है जो लड़ते-भिड़ते और मारते-काटते हुए आगे बढ़ते हैं अंतरंग पहलू है विराट् पुरुष जो विराट् सर्जन और विराट् संहार के द्वारा अपने-आपको पूर्ण करते हैं। जीवन एक युद्ध है, संहार-क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है; ये भगवान् महारुद्र हैं, यही दर्शन अर्जुन को उस समरभूमि में हुआ था। हेराक्लिटस का कहना है कि, युद्ध सब वस्तुओं का जनक है, युद्ध सबका राजा है। इस ग्रीक तत्ववेत्ता के अन्य सूत्र-वचनों के समान यह सूत्र-वचन भी एक बड़े गंभीर सत्य का सूचक है। जड़-प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत् की प्रत्येक वस्तु जनमती हुई प्रतीत होती है; शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धांतों और प्राणियों के परस्पर-संघर्ष ये यह जगत् आगे बढ़ता दीखता है, सदा नये पदार्थ उत्पन्न करते हुए और पुराने नष्ट करते हुए यह आगे बढ़ा चला जा रहा है- किधर जा रहा है, किसी को ठीक पता नहीं; कोई कहते हैं यह अपने संपूर्ण नाश की ओर जा रहा है; और कोई कहते हैं यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है और इन चक्करों का कोई अंत नहीं; आशावाद का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ये चक्कर प्रगतिशील है और हर चक्कर के साथ जगत् अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है, रास्तें में वह चाहे जो कष्ट और गड़बड़ दीख पड़े, पर यह जगत् बराबर किसी दिव्य अभीष्ट-सिद्धि कि अधिकाधिक समीप जा रहा है।

यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहां संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर-विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतान ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर हम अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों जीवन को न निगलते रहें तब तक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता। हमारा शारिरीक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मरकर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इस पर आक्रमण करती और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरे को खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है। सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों के अपने अंदर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत् का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और संरक्षण का नियम है।“ प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया। अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया। ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी-चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं। 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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