"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 107": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

भगवान् पहले एक वर्णन करते हैं, “जो कोई मन से इद्रियों का नियमन करके कामेनिद्रयों द्वारा कर्मयोग करता है, वह श्रेष्ठ है और यह कहकर फिर तुरंत इसी कथन से, इसी के सारांशस्वरूप इसी को विधि बनाते हुए यह आज्ञा देते हैं कि तू नियत कर्म कर , ‘नियत’ शब्द में “नियम्य” को लिया गया है और कुरु कर्म शब्द में यहां किसी बाह्म विधि द्वारा निश्चित वैध कर्म की बात नहीं है , बल्कि गीता की शिक्षा है मुक्ति बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म। यदि यह मान लिया जाये, तो गीता के नियत कर्म को वेदविहित नितयकर्म और उसके ‘कर्तव्य कर्म’ को सामाजिक आर्य धर्म समझना होगा और उसके ‘यज्ञार्थ कर्म’ को वैदिक यज्ञ, एवं नि:स्वार्थ भाव से तथा बिना किसी वैयक्तिक उद्देश्य के किया हुआ बंधा - बंधाया सामाजिक कर्तव्य मानना होगा। लोग गीता के निःस्वार्थ कर्म की बहुधा इसी तरह की व्याख्या किया करते हैं। परंतु मुझे लगता है कि गीता की शिक्षा इनती अनगढ़ और सहज नहीं है इतनी देशकालमर्यादित और लौकिक तथा अनुदार नहीं है। गीता की शिक्षा उदार, स्वतंत्र ,सूक्ष्म और गंभीर है, सब काल और सब मनुष्यों के लिये है, किसी खास समय और देश के लिये नहीं। गीता की यह विशेषता है कि यह सदा बाहरी आकारों , व्योरों और सांप्रदायकि धारणओं के बंधनों को तोड़कर मूल सिद्धांतों की ओर तथा हमारे स्वभाव और हमारी सत्ता के महान् तथ्यों की और अपना रूख रखती है। गीता व्यापक दार्शनिक सत्य और आध्यात्मिक व्यावहारिकता का ग्रंथ है, अनुदार सांप्रदायकि और दार्शनिक शूत्रों और बधें - बंधाये मतवादों का ग्रंथ नहीं।
परंतु कठिनाई यह है कि हमारा वर्तमान स्वभाव , और कर्मो के प्रेरक तत्व कामना के होते हुए निष्काम कर्म संभव है क्या? जिसे हम साधारणतया निःस्वार्थ कर्म कहते हैं वह यथार्थ में निष्काम नहीं होता उसमें छोट- मोटे वैयक्तिक स्वार्थ की जगह दूसरी बृहत्तर वासनाएं होती हैं, उदाहरणर्थ , पुण्य - संचय , देश - सेवा मानव- समाज की सेवा। फिर कर्म मात्र ही , जैसा कि भगवान् आग्रहपूर्वक कहते हैं , प्रकृति के गुणों द्वारा ही हुआ करता है ; शास्त्र अनुकूल आचरण करते हुए भी हम अपने स्वभाव के ही अनुकूल कर्म करते हैं, प्रायः शास्त्रोक्त कर्म के पीछे हमारी इच्छाऐं पूर्वनिश्चित मत , आवेश , अहंकार, वैयक्त्कि, राष्ट्रीय और संप्रदायिक अभिमान नमत और अुनराग छिपे होते हैं यदि मान लीजिए ऐसा न भी हो और अत्यंत विशुद्ध भाव से ही सशक्त कर्म किया जाये तो भी ऐसे कर्म में हम अपनी प्रकृति की पसंद का ही अनुसरण करते हैं ,क्योंकि यदि हमारी प्रकृति ऐसे कर्म के अनुकूल न होती, यदि हमारी बुद्धि और हमारे संकल्प पर गुणों के किसी दूसरे संघात की क्रिया हुई होती तो हम शास्त्रोक्त कर्म करने की ओर कदापि न झुकते , बल्कि अपनी मौज या अपनी बुद्धि की धारणा के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते अथवा सामाजिक जीवन का त्याग कर एकांतवास करते या संन्यासी हो जाते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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