"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 182" के अवतरणों में अंतर

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वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती , प्रत्येक का लय अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है। कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है , जो चरित्रबलसाधन के आयास , बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगो के झोंके से परे की चीज है।सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर - अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिये त्रिगुणत्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती है; कारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरूष के सुख के लिये और उसीकी अनुमति से करती है। परंतु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते , क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है , शोक , क्लेश , असुविधा , दुर्भाग्य विफलता , पराजय , निंदा , अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है , और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जेसे हर्ष , सुख , हर प्रकार की तुष्टि , समृद्धि , सफलता , जय , गौरव , प्रशंसा आदि , तो मन उन्हें लगाने के लिये उछल पड़ता है ; पर इससे सत्य में कोइ अंतर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्दों के पीछे सदा वर्तमान रहता है।
 
वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती , प्रत्येक का लय अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है। कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है , जो चरित्रबलसाधन के आयास , बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगो के झोंके से परे की चीज है।सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर - अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिये त्रिगुणत्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती है; कारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरूष के सुख के लिये और उसीकी अनुमति से करती है। परंतु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते , क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है , शोक , क्लेश , असुविधा , दुर्भाग्य विफलता , पराजय , निंदा , अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है , और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जेसे हर्ष , सुख , हर प्रकार की तुष्टि , समृद्धि , सफलता , जय , गौरव , प्रशंसा आदि , तो मन उन्हें लगाने के लिये उछल पड़ता है ; पर इससे सत्य में कोइ अंतर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्दों के पीछे सदा वर्तमान रहता है।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:१८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
19.समत्व

आत्मा की सुख- दुख - उपेक्षी स्टोइक स्थिति और दार्शनिक का संतुलन गीतोक्त समत्व की पहली और दूसरी पैड़ियां हैं जिनसे प्राणवेग के भंवरजाल और कमनाओं के मंथन से ऊपर उठकर देवताओं की नहीं प्रत्युत भगवान् की परम आत्म - वशितवपूर्ण शांति और आनंद तक पहुंचा जा सकता है। स्टोइन संप्रदायवालों की समता की धुरी है सदाचार और यह तापस सहिष्णुता के द्वारा प्राप्त आत्म - प्रभुत्व पर प्रतिष्ठित है ; इसे अधिक सुख - साध्य और शांत स्वरूप है दार्शनिकों की समता का , ये लोग ज्ञान के द्वारा , अनासक्ति के द्वारा और हमारे प्राकृत स्वभावसुलभ विक्षोभों से ऊपर उठी हुई उच्च बौद्धिक उदासीनता के द्वारा आत्म - वशित्व प्राप्त करना अधिक पसंद करते हैं , इसीको गीता ने कहा है कि एक धार्मिक या ईयाई ढंग की समता भी है जिसका स्वरूप भगवदिच्छा के सामने सदा नत होकर , घुटने टेककर झुके रहना या साष्टांग प्रणिपात के द्वारा भगवान् की इच्छा को सिर माथे चढा़ना। दिव्य शांति के ये तीन साधन - सोपान हैं - वीरोचित सहनशीलता , विवेकपूर्ण विरक्ति और धर्मनिष्ठ समर्पण या तितिक्षा , उदासीनता और नति। गीता अपने समन्वय के उदार ढंग में इन सभी का समावेश कर लेता है ओर अपनी आत्मा की ऊध्र्व गति में उन्हें सन्निविष्ट कर लेती है।
वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती , प्रत्येक का लय अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है। कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है , जो चरित्रबलसाधन के आयास , बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगो के झोंके से परे की चीज है।सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर - अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिये त्रिगुणत्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती है; कारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरूष के सुख के लिये और उसीकी अनुमति से करती है। परंतु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते , क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है , शोक , क्लेश , असुविधा , दुर्भाग्य विफलता , पराजय , निंदा , अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है , और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जेसे हर्ष , सुख , हर प्रकार की तुष्टि , समृद्धि , सफलता , जय , गौरव , प्रशंसा आदि , तो मन उन्हें लगाने के लिये उछल पड़ता है ; पर इससे सत्य में कोइ अंतर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्दों के पीछे सदा वर्तमान रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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