"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 204": अवतरणों में अंतर

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यही वह कुंजी है जो उन बातों का समन्वय और स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें हम परस्पर विरूद्ध और विसंगत जानकर छोड़ देते । वास्तव में हमारे सचेतन जीवन के कई स्तर हैं, और एक स्तर पर जो बात व्यवहारतः सत्य मानी जाती है वह उससे ऊपर के स्तर पर जाते ही सत्य नहीं रह जाती, क्योंकि वहां उसका कुछ और ही रूप हो जाता है, क्योंकि वहां हम वस्तुओं को अलग - अलग नहीं बल्कि अधिकतर उनकी समग्रता में देखने लगते हैं। हाल के वैज्ञानिक अविष्कार ने दिखाया है कि मनुष्य ,पशु, वृक्ष और खनिज धातुओं तक में प्राणमयी प्रतिक्रियाएं सार रूप से एक - सी होती हैं, इसलिये यदि इनमें से प्रत्येक में एक ही प्रकार की ‘स्नायवीय चेतना’ है (अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में यही कहना होगा) तो, इनके यांत्रिक मनस्तत्व की आधारभूमि भी एक - सी होनी चाहिये। फिर भी इनमें से प्रत्येक यदि अपने - आपको अनुभव का मनोमय विवरण दे सके तो एक ही प्रकार की प्रतिक्रियाओं और एक से प्रकृति - तत्वों के चार ऐसे विवरण प्राप्त होगें जो एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न और बहुत हदतक एक - दूसरे से उलटे होगें, इसका कारण यह है कि जैसे - जैसे हम सचेतन सत्ता के ऊपर के स्तरों में उठते हैं वैसे - वैसे इनका अर्थ और मूल्य बदलता जाता है और वहां इन सबका विचार दूसरी ही दृष्टि से करना होता है।
यही वह कुंजी है जो उन बातों का समन्वय और स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें हम परस्पर विरूद्ध और विसंगत जानकर छोड़ देते । वास्तव में हमारे सचेतन जीवन के कई स्तर हैं, और एक स्तर पर जो बात व्यवहारतः सत्य मानी जाती है वह उससे ऊपर के स्तर पर जाते ही सत्य नहीं रह जाती, क्योंकि वहां उसका कुछ और ही रूप हो जाता है, क्योंकि वहां हम वस्तुओं को अलग - अलग नहीं बल्कि अधिकतर उनकी समग्रता में देखने लगते हैं। हाल के वैज्ञानिक अविष्कार ने दिखाया है कि मनुष्य ,पशु, वृक्ष और खनिज धातुओं तक में प्राणमयी प्रतिक्रियाएं सार रूप से एक - सी होती हैं, इसलिये यदि इनमें से प्रत्येक में एक ही प्रकार की ‘स्नायवीय चेतना’ है (अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में यही कहना होगा) तो, इनके यांत्रिक मनस्तत्व की आधारभूमि भी एक - सी होनी चाहिये। फिर भी इनमें से प्रत्येक यदि अपने - आपको अनुभव का मनोमय विवरण दे सके तो एक ही प्रकार की प्रतिक्रियाओं और एक से प्रकृति - तत्वों के चार ऐसे विवरण प्राप्त होगें जो एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न और बहुत हदतक एक - दूसरे से उलटे होगें, इसका कारण यह है कि जैसे - जैसे हम सचेतन सत्ता के ऊपर के स्तरों में उठते हैं वैसे - वैसे इनका अर्थ और मूल्य बदलता जाता है और वहां इन सबका विचार दूसरी ही दृष्टि से करना होता है।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:२४, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

स्वयं गीता ने अर्थात संपूर्ण सत्य को न जानने वाले और खंड सत्यों को माननेवाले तथा अर्थात् समग्र सत्य का समन्वयात्मक ज्ञान रखने वाले योगी में भेद किया है। योगी से जिस शांत और पूर्ण ज्ञान की स्थिति में आरोहण करने के लिये कहा जाता है उसके लिये पहली आवश्यता यह है कि समस्त जीवन को धीरता से उसके समग्र रूप में देखा जाये तथा इसके परसपर - विरोधी दीखने वाले सत्यों के कारण चित्त में कोई भ्रांति न आने दी जाये। हमारी संमिश्र सत्ता के एक छोर पर प्रकृति के साथ जीव के संबंध का एक ऐसा पहलू है जिसमें जीव एक प्रकार से पूर्ण सवतंत्र है; दूसरे छोर पर दूसरा पहलू है जिसमें एक प्रकार से प्रकृति का कठोर नियम है; इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता का एक आंशिक और दिखावटी , फलतः एक अवासविक आभास भी होता है जिसे जीव अपने विकासशील मन के अंदर इन दो विरोधी छोरों के विकृत प्रतिबिंब को ग्रहण करता है। हम स्वतंता के इस आभास को ही न्यूनाधिक भूल के साथ , स्वाधीन इच्छा कहा करते हैं; परंतु गीता पूर्ण मुक्ति और प्रभुत्व को छोड़कर और किसी चीज हो स्वाधीनता या स्वतंत्रता नहीं मानती। गीता की शिक्षा के पीछे जीव और प्रकृति के विषय में जो दो महान् सिद्धांत हैं उन्हें सदा ध्यान में रखना चाहिये- एक है पुरूष - प्राकृतिविषयक सांख्य का सत्य जिसको गीता ने त्रिविध पुरूषरूपी वेदांत - सत्य के द्वारा संशोधित और परिपूर्ण कर दिया है, दूसरा है द्विविध प्रकृति , सच्ची अध्यात्म - प्रकृति ।
यही वह कुंजी है जो उन बातों का समन्वय और स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें हम परस्पर विरूद्ध और विसंगत जानकर छोड़ देते । वास्तव में हमारे सचेतन जीवन के कई स्तर हैं, और एक स्तर पर जो बात व्यवहारतः सत्य मानी जाती है वह उससे ऊपर के स्तर पर जाते ही सत्य नहीं रह जाती, क्योंकि वहां उसका कुछ और ही रूप हो जाता है, क्योंकि वहां हम वस्तुओं को अलग - अलग नहीं बल्कि अधिकतर उनकी समग्रता में देखने लगते हैं। हाल के वैज्ञानिक अविष्कार ने दिखाया है कि मनुष्य ,पशु, वृक्ष और खनिज धातुओं तक में प्राणमयी प्रतिक्रियाएं सार रूप से एक - सी होती हैं, इसलिये यदि इनमें से प्रत्येक में एक ही प्रकार की ‘स्नायवीय चेतना’ है (अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में यही कहना होगा) तो, इनके यांत्रिक मनस्तत्व की आधारभूमि भी एक - सी होनी चाहिये। फिर भी इनमें से प्रत्येक यदि अपने - आपको अनुभव का मनोमय विवरण दे सके तो एक ही प्रकार की प्रतिक्रियाओं और एक से प्रकृति - तत्वों के चार ऐसे विवरण प्राप्त होगें जो एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न और बहुत हदतक एक - दूसरे से उलटे होगें, इसका कारण यह है कि जैसे - जैसे हम सचेतन सत्ता के ऊपर के स्तरों में उठते हैं वैसे - वैसे इनका अर्थ और मूल्य बदलता जाता है और वहां इन सबका विचार दूसरी ही दृष्टि से करना होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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