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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

गीता के प्रथम छः अध्याय एक प्रकार से गीता की शिक्षा का प्रारंम्भिक खंड हैं। बाकी बारह अध्यायों में इस प्रथम षट्क में जो संकेत रूप से, अधूरे तौर पर कहा गया है उसीको विशद किया गया है , ये संकेत अपने - आपमें इतने अधिक महत्वपूर्ण हैं कि इनका खुलासा बाकी के दो षटकों में करना पड़ा है। गीता यदि एक ऐसा लिखित शास्त्र होती जिसे संपूर्ण करना आवश्यक होता , यदि यह ग्रंथ वास्तव में किसी शिष्य को दिया हुआ किसी ऐहिक गुरू का उपदेश होता , जिस अपदेश को, शिष्य जब आगे के सत्य को ग्रहण करने के लिये तैयार हो जाये तब, यथासमय फिर से आरंभ किया जा सकता , तो यह धरण बांधी जा सकती थी कि इस छठे अध्याय के अंत में गुरू रूक जाते और शिष्य से कहते , ‘‘ पहले इसे अपने आचरण में ले आ, यहांतक जो कुछ कहा गया है।
उसे अनुभव करने के लिये तुझे अभी बहुत कुछ करना है और तुझे इसके लिये अत्यंत विशाल आधार - क्षेत्र दे दिया गया है, आगे जैसे - जैसे कठिनाइयां उत्पन्न होंगी वे आप ही हल होती जायेंगी या में उन्हें तेरे लिये हल कर दूंगा। अभी तो मैंने जो कुछ कहा है इसीको अपने जीवन में ले आ; इसी भाव में स्थित होकर कर्म कर।” वास्तव में इसमें बहुत - सी ऐसी बातें हैं जिन्हें आगे चलकर डाले गये प्रकाश की सहायता के बिना ठीक तरह नहीं समझा जा सकता। प्रथम षट्क में ही उपस्थित होनेवाली कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिये तथा संभवित भ्रमों को दूर करने के लिये, स्वयं मुझे भी बहुत - सी बातें पहले ही कह देनी पड़ी हैं, उदाहरणार्थ, पुरूषोत्तम - तत्व की भावना को पहले ही बार - बार कहना पड़ा है, क्योंकि इसके बिना आत्मा और कर्म और कर्म के अधीश्वर भगवान् के बारे में जो कुछ अस्पष्टता है वह दूर नहीं हो सकती । गीता ने इन बातों को जान - बूझकर ही प्रथम षट्क में विशद इसलिये नहीं किया है कि जो बातें मानव - शिष्य की वर्तमान बुद्धि के लिये बहुत बड़ी हैं उन्हें उसकी अपरिपक्व दशा में पहले ही कह देना उसकी प्राथमिक साधना की दृढता को विचलित कर सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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