"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 44" के अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार, जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और कर्म के संबंध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधार बिंदु और साहस पूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना होगा। कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो यहां इन सब लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं- लोकान् समाहर्त्‍तुमिह प्रवृत्तः। गीता ने उदार हिंदू धर्म के सार भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा हैं; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती। और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़ प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिका क्रिया मात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ा मात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक अभ्यास है या अलिप्त, अचर, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् इस बात को हम जरा भी मानते हैं, जैसा की गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और भी सबके परे रहने वाले परम पुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं, जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहां ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहां का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों का मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि ,“तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छाड़ूँगा।“
 
इस प्रकार, जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और कर्म के संबंध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधार बिंदु और साहस पूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना होगा। कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो यहां इन सब लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं- लोकान् समाहर्त्‍तुमिह प्रवृत्तः। गीता ने उदार हिंदू धर्म के सार भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा हैं; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती। और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़ प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिका क्रिया मात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ा मात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक अभ्यास है या अलिप्त, अचर, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् इस बात को हम जरा भी मानते हैं, जैसा की गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और भी सबके परे रहने वाले परम पुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं, जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहां ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहां का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों का मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि ,“तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छाड़ूँगा।“
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:५२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

इस प्रकार, जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और कर्म के संबंध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधार बिंदु और साहस पूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना होगा। कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो यहां इन सब लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं- लोकान् समाहर्त्‍तुमिह प्रवृत्तः। गीता ने उदार हिंदू धर्म के सार भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा हैं; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती। और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़ प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिका क्रिया मात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ा मात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक अभ्यास है या अलिप्त, अचर, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् इस बात को हम जरा भी मानते हैं, जैसा की गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और भी सबके परे रहने वाले परम पुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं, जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहां ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहां का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों का मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि ,“तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छाड़ूँगा।“


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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