"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 79" के अवतरणों में अंतर

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यह त्रिगुण से ऊपर उठकर और कर्म - बंधन से मुक्त होकर भी कर्म कर सकता है , जैसे भगवान् कहते है कि मैं करता हूं , और पुरूषोत्तम की भक्ति पाकर और उनसे मुक्त होकर उनकी दिव्य प्रकृति का पूर्ण आनंद ले सकता है । गीता का विश्लेषण ऐसा है जो बाह्म सृष्टि - क्रम से ही बद्ध न होकर परा प्रकृति के ‘ उत्तम रहस्य’ तक में प्रविष्ट हैं उसी उत्तम रहस्य के आधार पर गीता वेदांत , सांख्य और योग का समन्वय, ज्ञान , कर्म और भक्ति का समन्वय स्थापित करती है । केवल सांख्य - शास्त्र के द्वारा कर्म और भक्ति का समन्वय परस्पर - विरोधी होने से असंभावित है । केवल अद्वैत सिद्धांत के आधार पर योग के अंगरूप से कर्मो का सदा आचरण और पूर्ण ज्ञान, मुक्ति और सायुज्य के बाद भी भक्ति में रमण असंभव है या कम - से - कम युक्ति- विरूद्ध और निष्प्रयोजन है । गीता का सांख्य - ज्ञान इन सब बाधाओं को दूर करता है और गीता का योगशास्त्र इस सब पर विजय लाभ करता है । गीता के प्रथम छः अध्यायों का संपूर्ण लक्ष्य सांख्य और योग ,इन दो मार्गों को ,जिन्हे सामान्यतः एक दूसरे से भिन्न और विरोधी समझा जाता है, वेदांतिक सत्य के विशाल आयतन में समन्वित करना है । <br />
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अपना प्रकृति में प्रत्येक जीव अहंकार के रूप में भासित होता है, परा प्रकृति में प्रत्येक जीव व्यष्टिरूप पुरूष है , अर्थात् बहुत्व उस एक का ही आध्यात्मिक स्वभाव है। यह व्यष्टि - पुरूष , भगवान् कहते हैं कि, स्वयं में हूं, इस सृष्टि में मेरा ही आंशिक प्राट्य है , यह मेरा ही अंश है, और इसमें मेरी सब शक्त्यिां मौजूद हैं ; यह साक्षी है , अुमंता है, कर्ता है , ज्ञाता है, ईश्वर है । यह अपरा प्रकृति में उतर आता है और यह समझता है कि मैं कर्म से बंधा हूं , इसलिये कि निम्न सत्ता को भोग सके ; यह इससे निवृत्त होकर यह जान सकता है कि मैं कर्म के बंधन से सर्वथा विनिर्मुक्त अकर्ता पुरूष हूं।यह त्रिगुण से ऊपर उठकर और कर्म - बंधन से मुक्त होकर भी कर्म कर सकता है , जैसे भगवान् कहते है कि मैं करता हूं , और पुरूषोत्तम की भक्ति पाकर और उनसे मुक्त होकर उनकी दिव्य प्रकृति का पूर्ण आनंद ले सकता है । गीता का विश्लेषण ऐसा है जो बाह्म सृष्टि - क्रम से ही बद्ध न होकर परा प्रकृति के ‘ उत्तम रहस्य’ तक में प्रविष्ट हैं उसी उत्तम रहस्य के आधार पर गीता वेदांत , सांख्य और योग का समन्वय, ज्ञान , कर्म और भक्ति का समन्वय स्थापित करती है । केवल सांख्य - शास्त्र के द्वारा कर्म और भक्ति का समन्वय परस्पर - विरोधी होने से असंभावित है । केवल अद्वैत सिद्धांत के आधार पर योग के अंगरूप से कर्मो का सदा आचरण और पूर्ण ज्ञान, मुक्ति और सायुज्य के बाद भी भक्ति में रमण असंभव है या कम - से - कम युक्ति- विरूद्ध और निष्प्रयोजन है । गीता का सांख्य - ज्ञान इन सब बाधाओं को दूर करता है और गीता का योगशास्त्र इस सब पर विजय लाभ करता है ।
सांख्य से ही आरंभ किया गया है सांख्य को ही आधार बनाकर; पर आरंभ से ही उसमें, उत्तरोत्तर अधिक दृढता से योग की भावनाएं और पद्धतियां भरी गयी हैं और सांख्य को योग के ही भाव में एक नये रूप में ढाला गया है। सांख्य और योग में जो प्रकृत भेद उस समय की धर्म - बुद्धि में प्रतीत होता था वह प्रथमः यह था कि सांख्य का साधन ज्ञान तथा बुद्धि योग द्वारा और योग का साधन कर्म तथा सक्रिय चेतना के रूपांतर के द्वारा हेता है। दूसरा भेद - जो प्रथम भेद से आप ही निष्पन्न होता है - यह था कि , सांख्य पूर्ण निष्क्रियता और संन्यास की और ले जानेवाला माना जाता था जब कि योग में कामना का आंतरिक त्याग , आंतरिक तत्वों का पवित्रिकरण - जो कर्म की और और कर्मो को भगत् - निमित्त कर देव - जीवन और मुक्ति की ओर ले जाता है - पर्याप्त माना जाता था। फिर भी दोनों का उद्देश्य एक ही था, अर्थात जन्म और इस पार्थिव जीवन के परे जाना और मानव- आत्मा का परमात्मा के साथ एक हो जाना । सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है , वह यही है । इन दो परस्पर - विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसी से यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे। गुरू कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं ।  
 
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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१०:०३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

अपना प्रकृति में प्रत्येक जीव अहंकार के रूप में भासित होता है, परा प्रकृति में प्रत्येक जीव व्यष्टिरूप पुरूष है , अर्थात् बहुत्व उस एक का ही आध्यात्मिक स्वभाव है। यह व्यष्टि - पुरूष , भगवान् कहते हैं कि, स्वयं में हूं, इस सृष्टि में मेरा ही आंशिक प्राट्य है , यह मेरा ही अंश है, और इसमें मेरी सब शक्त्यिां मौजूद हैं ; यह साक्षी है , अुमंता है, कर्ता है , ज्ञाता है, ईश्वर है । यह अपरा प्रकृति में उतर आता है और यह समझता है कि मैं कर्म से बंधा हूं , इसलिये कि निम्न सत्ता को भोग सके ; यह इससे निवृत्त होकर यह जान सकता है कि मैं कर्म के बंधन से सर्वथा विनिर्मुक्त अकर्ता पुरूष हूं।यह त्रिगुण से ऊपर उठकर और कर्म - बंधन से मुक्त होकर भी कर्म कर सकता है , जैसे भगवान् कहते है कि मैं करता हूं , और पुरूषोत्तम की भक्ति पाकर और उनसे मुक्त होकर उनकी दिव्य प्रकृति का पूर्ण आनंद ले सकता है । गीता का विश्लेषण ऐसा है जो बाह्म सृष्टि - क्रम से ही बद्ध न होकर परा प्रकृति के ‘ उत्तम रहस्य’ तक में प्रविष्ट हैं उसी उत्तम रहस्य के आधार पर गीता वेदांत , सांख्य और योग का समन्वय, ज्ञान , कर्म और भक्ति का समन्वय स्थापित करती है । केवल सांख्य - शास्त्र के द्वारा कर्म और भक्ति का समन्वय परस्पर - विरोधी होने से असंभावित है । केवल अद्वैत सिद्धांत के आधार पर योग के अंगरूप से कर्मो का सदा आचरण और पूर्ण ज्ञान, मुक्ति और सायुज्य के बाद भी भक्ति में रमण असंभव है या कम - से - कम युक्ति- विरूद्ध और निष्प्रयोजन है । गीता का सांख्य - ज्ञान इन सब बाधाओं को दूर करता है और गीता का योगशास्त्र इस सब पर विजय लाभ करता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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