"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 8" के अवतरणों में अंतर

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इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्‍त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिस पर वैदिक ऋषि तो आधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी। अब उत्तर काल में मानव, विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान होगा।  
 
इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्‍त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिस पर वैदिक ऋषि तो आधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी। अब उत्तर काल में मानव, विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान होगा।  
 
उत्तर काल के हम लोग उस विकासोन्नति के नवीन युग के पुराभाग में उपस्थित है जिसकी परणिति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होने वाली है। हमारा यह काम नहीं है कि वेदांत के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा ही चहादीवारी के अंदर ही अपने-आपको बंद कर लें। ऐसा करना अपने-आपको एक सीमा में बांध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान और में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा। हम भावी सूर्य की संतान हैं, बीती हुई ऊषा की नहीं। नवीन साधन-सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अंदर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्‍त संसार के महान् आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनरूज्‍जीवित अभिप्राय को नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्परूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल करना रखना होगा।<br />
 
उत्तर काल के हम लोग उस विकासोन्नति के नवीन युग के पुराभाग में उपस्थित है जिसकी परणिति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होने वाली है। हमारा यह काम नहीं है कि वेदांत के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा ही चहादीवारी के अंदर ही अपने-आपको बंद कर लें। ऐसा करना अपने-आपको एक सीमा में बांध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान और में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा। हम भावी सूर्य की संतान हैं, बीती हुई ऊषा की नहीं। नवीन साधन-सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अंदर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्‍त संसार के महान् आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनरूज्‍जीवित अभिप्राय को नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्परूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल करना रखना होगा।<br />
इसके अतिरिक्त सुदूर और तिथि-मिति-रहित भूतकाल, जो मृत जैसा दिखायी देता  था, अब हमारे समीप आ रहा है और उसके साथ उन ज्यातिर्मय गुह्य रहस्यों का तीव्र प्रकाश है जो मनुष्य की चेतना से एक जमाना हुआ लुप्त हो गये थे, किंतु अब परदे को चीर कर फिर से बाहर निकल रहे हैं। यह बात भविष्य में होने वाले एक नवीन, सुसमृद्ध और अति महत् समन्वय की ओर इशारा कर रही है; भविष्य की यह बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकता है कि हमारे इन सब प्राप्त अर्थों का फिर से एक नवीन और अति उदार, सबको समा लेने वाला सामंसस्य सिद्ध हो। पर जिस प्रकार पहले के समन्वयों का उपक्रम उससे भी पहले के समन्वयों से ही हुआ, उसी प्रकार भावी समन्वय का भी, वैसा ही स्थिर और सुप्रतिष्ठ होने के लिये, वहीं से आरंभ करना चाहिये जहां हम को आध्‍यात्मिक तत्‍वविचार और अनुभवों के वृहत् से लाकर छोड़ा है। ऐसे संस्थानों में गीता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। अस्तु ! गीता के इस अध्ययन में हमारा हेतु इसके विचारों का पांडितयपूर्ण या शास्त्रीय आलोचना करना अथवा इसके दार्शनिक सिद्धांत को आध्यात्मिक अनुसंधान के इतिहास के अंदर ले आना न होगा, न हम इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर रखकर नैयायिक के ढंग से ही अध्ययन करेंगे।  
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इसके अतिरिक्त सुदूर और तिथि-मिति-रहित भूतकाल, जो मृत जैसा दिखायी देता  था, अब हमारे समीप आ रहा है और उसके साथ उन ज्यातिर्मय गुह्य रहस्यों का तीव्र प्रकाश है जो मनुष्य की चेतना से एक जमाना हुआ लुप्त हो गये थे, किंतु अब परदे को चीर कर फिर से बाहर निकल रहे हैं। यह बात भविष्य में होने वाले एक नवीन, सुसमृद्ध और अति महत् समन्वय की ओर इशारा कर रही है; भविष्य की यह बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकता है कि हमारे इन सब प्राप्त अर्थों का फिर से एक नवीन और अति उदार, सबको समा लेने वाला सामंसस्य सिद्ध हो। पर जिस प्रकार पहले के समन्वयों का उपक्रम उससे भी पहले के समन्वयों से ही हुआ, उसी प्रकार भावी समन्वय का भी, वैसा ही स्थिर और सुप्रतिष्ठ होने के लिये, वहीं से आरंभ करना चाहिये जहां हम को आध्‍यात्मिक तत्‍वविचार और अनुभवों के वृहत् से लाकर छोड़ा है। ऐसे संस्थानों में गीता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। अस्तु ! गीता के इस अध्ययन में हमारा हेतु इसके विचारों का पांडितयपूर्ण या शास्त्रीय आलोचना करना अथवा इसके दार्शनिक सिद्धांत को आध्यात्मिक अनुसंधान के इतिहास के अंदर ले आना न होगा, न हम इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर रखकर नैयायिक के ढंग से ही अध्ययन करेंगे। हम इसके पास साहाय्य और प्रकाश पाने के लिये आते हैं और इसलिये इसमें हमारा हेतु यही होना चाहिये कि हमें इसमें से इसका सच्चा अभिप्राय और जीता-जागता संदेश मिले, वह असली चीज मिले जिसे मनुष्य-जाति पूर्णता का और अपनी उच्चतम आध्यात्मिकता भवितव्यता का आधार बना सके।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१०:०८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्‍त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिस पर वैदिक ऋषि तो आधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी। अब उत्तर काल में मानव, विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान होगा। उत्तर काल के हम लोग उस विकासोन्नति के नवीन युग के पुराभाग में उपस्थित है जिसकी परणिति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होने वाली है। हमारा यह काम नहीं है कि वेदांत के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा ही चहादीवारी के अंदर ही अपने-आपको बंद कर लें। ऐसा करना अपने-आपको एक सीमा में बांध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान और में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा। हम भावी सूर्य की संतान हैं, बीती हुई ऊषा की नहीं। नवीन साधन-सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अंदर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्‍त संसार के महान् आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनरूज्‍जीवित अभिप्राय को नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्परूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल करना रखना होगा।
इसके अतिरिक्त सुदूर और तिथि-मिति-रहित भूतकाल, जो मृत जैसा दिखायी देता था, अब हमारे समीप आ रहा है और उसके साथ उन ज्यातिर्मय गुह्य रहस्यों का तीव्र प्रकाश है जो मनुष्य की चेतना से एक जमाना हुआ लुप्त हो गये थे, किंतु अब परदे को चीर कर फिर से बाहर निकल रहे हैं। यह बात भविष्य में होने वाले एक नवीन, सुसमृद्ध और अति महत् समन्वय की ओर इशारा कर रही है; भविष्य की यह बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकता है कि हमारे इन सब प्राप्त अर्थों का फिर से एक नवीन और अति उदार, सबको समा लेने वाला सामंसस्य सिद्ध हो। पर जिस प्रकार पहले के समन्वयों का उपक्रम उससे भी पहले के समन्वयों से ही हुआ, उसी प्रकार भावी समन्वय का भी, वैसा ही स्थिर और सुप्रतिष्ठ होने के लिये, वहीं से आरंभ करना चाहिये जहां हम को आध्‍यात्मिक तत्‍वविचार और अनुभवों के वृहत् से लाकर छोड़ा है। ऐसे संस्थानों में गीता का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। अस्तु ! गीता के इस अध्ययन में हमारा हेतु इसके विचारों का पांडितयपूर्ण या शास्त्रीय आलोचना करना अथवा इसके दार्शनिक सिद्धांत को आध्यात्मिक अनुसंधान के इतिहास के अंदर ले आना न होगा, न हम इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर रखकर नैयायिक के ढंग से ही अध्ययन करेंगे। हम इसके पास साहाय्य और प्रकाश पाने के लिये आते हैं और इसलिये इसमें हमारा हेतु यही होना चाहिये कि हमें इसमें से इसका सच्चा अभिप्राय और जीता-जागता संदेश मिले, वह असली चीज मिले जिसे मनुष्य-जाति पूर्णता का और अपनी उच्चतम आध्यात्मिकता भवितव्यता का आधार बना सके।


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