"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 338": अवतरणों में अंतर

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भगवत्स्वरूप श्रीगुरू से प्राप्त इससे पूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है। उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है ; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक - भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंतःस्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है , शोक - संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के संपर्क में आ चुका है। इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है , सब कुछ इसमें आ गया है , कोई बात बकी नहीं रही । अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें , जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं , अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मुनष्य - तन में परब्रह्म परमेश्वर - रूप से ग्रहण करता है , उन्हें वह परं ब्रह्म , परं धाम मनाता है जिसके अंदर जीव , इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने उस मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर , रह सकता है। अर्जुन उन्हें वह परमं पवित्रम् जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है - वह परम पारवन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल आर निव्र्यष्टिक ब्राह्यीं स्थिति में पहुंचता है।  
भगवत्स्वरूप श्रीगुरू से प्राप्त इससे पूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है। उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है ; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक - भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंतःस्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है , शोक - संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के संपर्क में आ चुका है। इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है , सब कुछ इसमें आ गया है , कोई बात बकी नहीं रही । अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें , जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं , अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मुनष्य - तन में परब्रह्म परमेश्वर - रूप से ग्रहण करता है , उन्हें वह परं ब्रह्म , परं धाम मनाता है जिसके अंदर जीव , इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने उस मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर , रह सकता है। अर्जुन उन्हें वह परमं पवित्रम् जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है - वह परम पारवन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल आर निव्र्यष्टिक ब्राह्यीं स्थिति में पहुंचता है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०४:४१, २३ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8.भगवान् और संभूति–शक्ति

फलतः उन परम सत्स्वरूप भगवान् के , एक साथ ही , परम सद्रूप में , विश्व के विश्वातीत मूल के रूप में , सब पदार्थों के निव्र्यष्टिक आत्मा के रूप में , विश्व के अचल धारक के रूप में , और सब प्राणियों , सब व्यष्टियों , सब पदार्थों , शक्तियों और गुणों के अंतःस्थित ईश्वर के रूप में , उस अंतर्यामी के रूप में जो आत्मा तथा कार्यकन्नीं प्रकृति हैं और सब भूतों के अंतर्भव और बहिर्भव हैं , - एक साथ ही इन सब रूपें में - पूर्ण दर्शन होते हैं। उस एक के इस संपूर्ण दर्शन और ज्ञान में ज्ञानयोग की पूर्णतया सिद्धि हो गयी । सब कर्मो का उनके भोक्ता स्वामी के प्रति समर्पण होने से कर्मयोग की पराकाष्ठा हो गयी - क्योंकि अब स्वभावनियुक्त मनुष्य भगवदिच्छा का केवल एक यंत्र रह जाता है। प्रेम और भक्ति का योग पूर्ण विस्तृत रूप में बता दिया गया। ज्ञान , कर्म और प्रेम की आत्यंतिक पूर्णता व्यक्ति को उस पद पर पहुंचाती है जहां जीव और जीवेश्वर अपनी उच्चात्युच्च अतिशयता में परम अभेद को प्राप्त होते है। उस अभेद में स्वरूप ज्ञान का प्रकाश हृदय को तथा बुद्धि को भी यथावत् प्रत्यक्ष या अपरोक्ष होता है। उस अभेद में निमित्त मात्र होकर किया जानेवाला कर्मरूप अभिव्यक्ति होता है। इस प्रकार आत्मिक मोक्ष का संपूर्ण साधन बता दिया गया ; दिव्य कर्म की पूरी नींव डाल दी गयी। भगवत्स्वरूप श्रीगुरू से प्राप्त इससे पूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है। उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है ; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक - भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंतःस्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है , शोक - संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के संपर्क में आ चुका है। इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है , सब कुछ इसमें आ गया है , कोई बात बकी नहीं रही । अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें , जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं , अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मुनष्य - तन में परब्रह्म परमेश्वर - रूप से ग्रहण करता है , उन्हें वह परं ब्रह्म , परं धाम मनाता है जिसके अंदर जीव , इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने उस मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर , रह सकता है। अर्जुन उन्हें वह परमं पवित्रम् जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है - वह परम पारवन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल आर निव्र्यष्टिक ब्राह्यीं स्थिति में पहुंचता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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