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अजवायन को पानी में भिगोकर आसवन करने पर एक प्रकार का आसुत (अर्क, डिस्टिलेट) तेल मिलता है। अर्क को अंग्रेजी में ओमम वाटर कहते हैं जो औषधियों में काम आता है। तेल में एक सुगंधयुक्त, उड़नशील पदार्थ, जिस अजवायन का सत (अंग्रेजी में थाइमोल) कहते हैं, होता है। आयुर्वेद के अनुसार अजवायन पाचक, तीक्ष्ण, गरम, हलकी, पित्तवर्धक और चरपरी होती है। यह शूल, वात, कफ, कृमि, वमन, गुल्म, प्लीहा और बवासीर इत्यादि रोगों में लाभदायक है। इसमें कटु, वायुनाशक और अग्निदीपक तीनों गुण हैं। पेट के दर्द, वायुगोला और अफरा में यह बहुत लाभदायक है। | अजवायन को पानी में भिगोकर आसवन करने पर एक प्रकार का आसुत (अर्क, डिस्टिलेट) तेल मिलता है। अर्क को अंग्रेजी में ओमम वाटर कहते हैं जो औषधियों में काम आता है। तेल में एक सुगंधयुक्त, उड़नशील पदार्थ, जिस अजवायन का सत (अंग्रेजी में थाइमोल) कहते हैं, होता है। आयुर्वेद के अनुसार अजवायन पाचक, तीक्ष्ण, गरम, हलकी, पित्तवर्धक और चरपरी होती है। यह शूल, वात, कफ, कृमि, वमन, गुल्म, प्लीहा और बवासीर इत्यादि रोगों में लाभदायक है। इसमें कटु, वायुनाशक और अग्निदीपक तीनों गुण हैं। पेट के दर्द, वायुगोला और अफरा में यह बहुत लाभदायक है। | ||
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पिपरमेंट का सत और अजवायन का सत समान मात्रा में तथा असली कपूर की दूनी मात्रा मिलाकर शीशी में काग (कार्क) बंद कर रख देने पर सब द्रव हो जाता है। वैद्यों के अनुसार इससे अनेक व्याधियों में लाभ होता है, जैसे हैजा, शूल तथा सिर, डाढ, पसली, छाती और कमर के दर्द तथा संधिवात में। इस द्रव को बिच्छू, बर्र, भौंरा, मधुमक्खी आदि के दंश पर रगड़ने से पीड़ा कम हो जाती है। | पिपरमेंट का सत और अजवायन का सत समान मात्रा में तथा असली कपूर की दूनी मात्रा मिलाकर शीशी में काग (कार्क) बंद कर रख देने पर सब द्रव हो जाता है। वैद्यों के अनुसार इससे अनेक व्याधियों में लाभ होता है, जैसे हैजा, शूल तथा सिर, डाढ, पसली, छाती और कमर के दर्द तथा संधिवात में। इस द्रव को बिच्छू, बर्र, भौंरा, मधुमक्खी आदि के दंश पर रगड़ने से पीड़ा कम हो जाती है। |
११:५५, २० मई २०१८ के समय का अवतरण
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अजवायन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 83 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भगवानदास वर्मा। |
अजवायन तीन भिन्न प्रकार की वनस्पतियों को कहते हैं। एस केवल अजवायन (कैरम कॉप्टिकम), दूसरी खुरासानी अजवायन तथा तीसरी जंगली अजवायन (सेसेली इंडिका) कहलाती है।
अजवायन
इसकी खेती समस्त भारतवर्ष में, विशेषकर बंगाल में होती है। मिस्र, ईरान तथा अफ़गानिस्तान में भी यह पौधा होता है। अक्तूबर, नवंबर में यह बोया जाता है और डेढ़ हाथ तक ऊँचा होता है। इसका बीज अजवायन के नाम से बाजार में बिकता है।
अजवायन को पानी में भिगोकर आसवन करने पर एक प्रकार का आसुत (अर्क, डिस्टिलेट) तेल मिलता है। अर्क को अंग्रेजी में ओमम वाटर कहते हैं जो औषधियों में काम आता है। तेल में एक सुगंधयुक्त, उड़नशील पदार्थ, जिस अजवायन का सत (अंग्रेजी में थाइमोल) कहते हैं, होता है। आयुर्वेद के अनुसार अजवायन पाचक, तीक्ष्ण, गरम, हलकी, पित्तवर्धक और चरपरी होती है। यह शूल, वात, कफ, कृमि, वमन, गुल्म, प्लीहा और बवासीर इत्यादि रोगों में लाभदायक है। इसमें कटु, वायुनाशक और अग्निदीपक तीनों गुण हैं। पेट के दर्द, वायुगोला और अफरा में यह बहुत लाभदायक है।
पिपरमेंट का सत और अजवायन का सत समान मात्रा में तथा असली कपूर की दूनी मात्रा मिलाकर शीशी में काग (कार्क) बंद कर रख देने पर सब द्रव हो जाता है। वैद्यों के अनुसार इससे अनेक व्याधियों में लाभ होता है, जैसे हैजा, शूल तथा सिर, डाढ, पसली, छाती और कमर के दर्द तथा संधिवात में। इस द्रव को बिच्छू, बर्र, भौंरा, मधुमक्खी आदि के दंश पर रगड़ने से पीड़ा कम हो जाती है।
अजवायन खुरासानी
इसके वृक्ष काश्मीर से गढ़वाल तथा कुमायूँ तक और पश्चिमी तिब्बत में 8,000 से 11,000 फुट तक की ऊँचाई पर होते हैं। यह अजवायन वर्ग का न होकर क्षुप जाति या सालेनेसेई वर्ग का वृक्ष है जिसमें बेलाडोना, धतूरा आदि हैं। इसमें तीव्र सुगंध होती है। पत्ते कटे और कँगूरेदार तथा फूल पीलापन लिए, कहीं-कहीं बैंगनी रंग की धारियों वाले होते हैं। इसके बीज काम में आते हैं। बीज श्वेत, काले और लाल तीन प्रकार के होते हैं जिनमें श्वेत उत्तम माना जाता है। यह अजवायन उपशामक, विरेचक, पेट के अफरे को दूर करने वाली तथा निद्राकारक मानी जाती है। श्वास के रोगों में भी यह लाभदायक है। इसके पत्ते कफ निकालने वाले होते हैं तथा इनके जल से कुल्ला करने पर दाँत के दर्द और मसूड़ों से खून जाने में लाभ होता है।
अजवायन जगंली
इसके पौधे देहरादून से गोरखपुर तक हिमालय की तराई में तथा बिहार, बंगाल, आसाम इत्यादि में पाए जाते हैं। पौधा सीधा, झाड़ी के समान, बारहमासी होता है। शाखाएँ एक फुट तक लंबी, फैली और घनी तथा पत्ते तीन भागों में विभक्त होते हैं। प्रत्येक भाग कटा और नोकदार होता है। फूल छत्तेदार, श्वेत तथा हल्के गुलाबी रंग के तथा फल गोल, बारीक, हल्के पीले रंग के होते हैं। इसके बीज विशेषकर चौपायों के रोगों में काम आते हैं। आयुर्वेद के अनुसार यह उत्तेजक, आँतों की कृमियों को नष्ट करने वाला है। मात्रा एक माशे से चार माशे तक है। इस अजवायन के फूल इत्यादि से सैंटोनिन नाम का पदार्थ एक रूसी वैज्ञानिक ने निकाला था जो पेट के कीड़े मारने के लिए दिया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ