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कनपेड़ (कर्णफेर, गलसुआ अथवा मंप्स) एक संक्रामक रोग हैं, जो पाव्य विषाणु (छन सकने योग्य विषाण) के कारण होता है। वैसे तो यह रोग किसी भी अवस्था के मनुष्य को हो सकता है, किंतु बालकों में यह अधिक होता है। इस रोग में कान के आगे तथा नीचेवाली कर्णमूल-ग्रंथियाँ (पैरोटिड ग्लैंड्स) सूज जाती है। रोगी को १०१रू-१०२रू फा. ज्वर हो जाता है। कभी-कभी ताप १०४रू-१०५रू फा. भी हो जाता है। परंतु साधारणत: ज्वर का ताप १०२रू फा. रहता है। ज्वर प्राय: एकाएक होता है या शीतकंपन से आरंभ करके। रोगी की कर्णमूल ग्रंथियों पर और मुख के भीतर लाली हो जाती है। उसे सिर पीड़ा, निर्बलता और अरुचि भी हो जाती है। वह बेचैनी में अंडबंड बकने लगता है। गले में सूजन होने के कारण ग्रीवा को घुमाने और खाद्य पदार्थ चबाने में पीड़ा होती है। सामान्यत: पहले एक पार्श्व की ग्रंथियों में सूजन होती है और एक आध दिन के उपरांत दूसरे पार्श्व में भी सूजन हो जाती है, अथवा दोनों और साथ ही साथ सूजन आरंभ होती है। ज्वर तथा सूजन की तीव्रता तीन-चार दिन तक रहती है और एक सप्ताह में रोगी ठीक हो जाता है।
कनफेड़ (कनपेड़, कर्णफेर, गलसुआ अथवा मंप्स) एक संक्रामक रोग हैं, जो पाव्य विषाणु (छन सकने योग्य विषाण) के कारण होता है। वैसे तो यह रोग किसी भी अवस्था के मनुष्य को हो सकता है, किंतु बालकों में यह अधिक होता है। इस रोग में कान के आगे तथा नीचेवाली कर्णमूल-ग्रंथियाँ (पैरोटिड ग्लैंड्स) सूज जाती है। रोगी को १०१रू-१०२रू फा. ज्वर हो जाता है। कभी-कभी ताप १०४रू-१०५रू फा. भी हो जाता है। परंतु साधारणत: ज्वर का ताप १०२रू फा. रहता है। ज्वर प्राय: एकाएक होता है या शीतकंपन से आरंभ करके। रोगी की कर्णमूल ग्रंथियों पर और मुख के भीतर लाली हो जाती है। उसे सिर पीड़ा, निर्बलता और अरुचि भी हो जाती है। वह बेचैनी में अंडबंड बकने लगता है। गले में सूजन होने के कारण ग्रीवा को घुमाने और खाद्य पदार्थ चबाने में पीड़ा होती है। सामान्यत: पहले एक पार्श्व की ग्रंथियों में सूजन होती है और एक आध दिन के उपरांत दूसरे पार्श्व में भी सूजन हो जाती है, अथवा दोनों और साथ ही साथ सूजन आरंभ होती है। ज्वर तथा सूजन की तीव्रता तीन-चार दिन तक रहती है और एक सप्ताह में रोगी ठीक हो जाता है।


रोग का उद्भवनकाल (इनक्यूबेशन पीरीयड) साधारणत: २१ दिन का होता है, किंतु कभी-कभी यह अवधि घटकर केवल १४ दिन की या बढ़कर ३५ दिन तक की भी हो जाती है। कनपेड़ प्राय: रोगी की नाक के स्राव, राल या थूक से वायु द्वारा फैलता है। यह अति संक्रामक रोग है। स्कूलों, छात्रावासों तथा सैनिक छावनियों में तीव्रता से फैलता है। इस रोग में सबसे अच्छी बात यह होती है कि ग्रंथियों में पूयस्राव नहीं होता और इससे मृत्यु भी नहीं होती।
रोग का उद्भवनकाल (इनक्यूबेशन पीरीयड) साधारणत: २१ दिन का होता है, किंतु कभी-कभी यह अवधि घटकर केवल १४ दिन की या बढ़कर ३५ दिन तक की भी हो जाती है। कनपेड़ प्राय: रोगी की नाक के स्राव, राल या थूक से वायु द्वारा फैलता है। यह अति संक्रामक रोग है। स्कूलों, छात्रावासों तथा सैनिक छावनियों में तीव्रता से फैलता है। इस रोग में सबसे अच्छी बात यह होती है कि ग्रंथियों में पूयस्राव नहीं होता और इससे मृत्यु भी नहीं होती।
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==उपद्रव==
==उपद्रव==
वृषणशोथ (आरकाइटिस), डिंबशोथ, अग्न्याशयशोथ (पैंक्रिऐटाइटिस), मूत्र में ऐल्ब्युमिन और मेनिनजीज़ का प्रदाह (सूजन) हो जा सकता है।
वृषणशोथ (आरकाइटिस), डिंबशोथ, अग्न्याशयशोथ (पैंक्रिऐटाइटिस), मूत्र में ऐल्ब्युमिन और मेनिनजीज़ का प्रदाह (सूजन) हो जा सकता है।


==चिकित्सा==
==चिकित्सा==
रोग के प्रारंभ में मुख की स्वच्छता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। रोगी का बिस्तर गर्म रखना चाहिए और जब तक सूजन दूर न हो जाय हल्का भोजन, दूध, चाय और फल का रस देना चाहिए। ए.पी.सी. नामक टिकिया (टैबलेट) दिन में तीन बार, या सल्फ़ाडाइज़ीन टिकिया दिन में चार-बार देना लाभदायक है। इकथिआल-बेलाडोना-ग्लिसरीन का सूजन पर लेप करना, उसपर गरम घी लगा रेंड का पत्ता रखकर और उसके ऊपर रूई रखकर बाँध देना भी बहुत हितकर है।
रोग के प्रारंभ में मुख की स्वच्छता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। रोगी का बिस्तर गर्म रखना चाहिए और जब तक सूजन दूर न हो जाय हल्का भोजन, दूध, चाय और फल का रस देना चाहिए। ए.पी.सी. नामक टिकिया (टैबलेट) दिन में तीन बार, या सल्फ़ाडाइज़ीन टिकिया दिन में चार-बार देना लाभदायक है। इकथिआल-बेलाडोना-ग्लिसरीन का सूजन पर लेप करना, उसपर गरम घी लगा रेंड का पत्ता रखकर और उसके ऊपर रूई रखकर बाँध देना भी बहुत हितकर है।



१३:५२, २३ दिसम्बर २०१३ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
कनफेड़
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 383
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कपिल देव व्यास

कनफेड़ (कनपेड़, कर्णफेर, गलसुआ अथवा मंप्स) एक संक्रामक रोग हैं, जो पाव्य विषाणु (छन सकने योग्य विषाण) के कारण होता है। वैसे तो यह रोग किसी भी अवस्था के मनुष्य को हो सकता है, किंतु बालकों में यह अधिक होता है। इस रोग में कान के आगे तथा नीचेवाली कर्णमूल-ग्रंथियाँ (पैरोटिड ग्लैंड्स) सूज जाती है। रोगी को १०१रू-१०२रू फा. ज्वर हो जाता है। कभी-कभी ताप १०४रू-१०५रू फा. भी हो जाता है। परंतु साधारणत: ज्वर का ताप १०२रू फा. रहता है। ज्वर प्राय: एकाएक होता है या शीतकंपन से आरंभ करके। रोगी की कर्णमूल ग्रंथियों पर और मुख के भीतर लाली हो जाती है। उसे सिर पीड़ा, निर्बलता और अरुचि भी हो जाती है। वह बेचैनी में अंडबंड बकने लगता है। गले में सूजन होने के कारण ग्रीवा को घुमाने और खाद्य पदार्थ चबाने में पीड़ा होती है। सामान्यत: पहले एक पार्श्व की ग्रंथियों में सूजन होती है और एक आध दिन के उपरांत दूसरे पार्श्व में भी सूजन हो जाती है, अथवा दोनों और साथ ही साथ सूजन आरंभ होती है। ज्वर तथा सूजन की तीव्रता तीन-चार दिन तक रहती है और एक सप्ताह में रोगी ठीक हो जाता है।

रोग का उद्भवनकाल (इनक्यूबेशन पीरीयड) साधारणत: २१ दिन का होता है, किंतु कभी-कभी यह अवधि घटकर केवल १४ दिन की या बढ़कर ३५ दिन तक की भी हो जाती है। कनपेड़ प्राय: रोगी की नाक के स्राव, राल या थूक से वायु द्वारा फैलता है। यह अति संक्रामक रोग है। स्कूलों, छात्रावासों तथा सैनिक छावनियों में तीव्रता से फैलता है। इस रोग में सबसे अच्छी बात यह होती है कि ग्रंथियों में पूयस्राव नहीं होता और इससे मृत्यु भी नहीं होती।

इसका संक्रमणकाल २१ दिन है। अत: बच्चों को स्कूल, अथवा युवकों को कालेज या विश्वविद्यालय, या अपने काम पर, रोग प्रारंभ होने से तीन सप्ताह तक नहीं जाना चाहिए। घर में एक बच्चे को रोग हो जाने पर माँ की असावधानी से परिवार के प्राय: सब बच्चे इससे पीड़ित हो जाते हैं। यह रोग शीतकाल में अधिक होता है।

उपद्रव

वृषणशोथ (आरकाइटिस), डिंबशोथ, अग्न्याशयशोथ (पैंक्रिऐटाइटिस), मूत्र में ऐल्ब्युमिन और मेनिनजीज़ का प्रदाह (सूजन) हो जा सकता है।

चिकित्सा

रोग के प्रारंभ में मुख की स्वच्छता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। रोगी का बिस्तर गर्म रखना चाहिए और जब तक सूजन दूर न हो जाय हल्का भोजन, दूध, चाय और फल का रस देना चाहिए। ए.पी.सी. नामक टिकिया (टैबलेट) दिन में तीन बार, या सल्फ़ाडाइज़ीन टिकिया दिन में चार-बार देना लाभदायक है। इकथिआल-बेलाडोना-ग्लिसरीन का सूजन पर लेप करना, उसपर गरम घी लगा रेंड का पत्ता रखकर और उसके ऊपर रूई रखकर बाँध देना भी बहुत हितकर है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ