"महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 39-57" के अवतरणों में अंतर

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==द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद</div>  
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व द्वादश अध्याय श्लोक 63- 90 का हिन्दी अनुवाद</font>
 
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भरी सभा में राजाओं की मण्डली के बीच अत्यन्त रजस्राव हाने के कारण मैं रक्त से भींगी जा रही थी। उस अवस्था में मुझे देखकर [[धृतराष्ट्र]] के पापात्मा पुत्रों ने जोर-जोर से हँसकर मेरी हँसी उड़ायी। [[मधुसूदन]] ! पाण्डवों, पांचालों और वृष्णिवंशी वीरों के जीते-जी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने दासीभाव से मेरा उपभोग करने की इच्छा प्रकट की। [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की पुत्रवधु हूँ; तो भी उनके सामने ही बलपूर्वक दासी बनायी गयी। मैं तो संग्राम में श्रेष्ठ इन महाबली पाण्डवों की निन्दा करती हूँ; जो अपनी यशस्विनी धर्म पत्नी को शत्रुओं द्वारा सतायी जाती हुई देख रहे थे। जनार्दन ! [[भीम|भीमसेन]] के बल को धिक्कार है, [[अर्जुन]] के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है, जो उन नराधमों द्वारा मुझे अपमानित होती देखकर भी सहन रहे थे। सत्पुरुषों द्वारा सदा आचरण में लाया हुआ यह धर्म का सनातन मार्ग है कि निर्बल पति भी अपनी पत्नी की  रक्षा करते हैं।
 
पत्नी की रक्षा करने से अपनी संतान सुरक्षित होती है और संतान की रक्षा होने पर अपने आत्मा की रक्षा होती है। अपनी आत्मा ही स्त्री के गर्भ से जन्म लेती है; इसीलिये वह जाया कहलाती है। पत्नी को भी अपने पति की रक्षा इसीलिये करनी चाहिये कि यह किसी प्रकार मेरे उदर से जन्म ग्रहण करे। ये अपनी शरण में आने पर कभी किसी का भी त्याग नहीं करते; किन्तु इन्हीं पाण्डवों ने मुझे शरणागत अबला पर तनिक भी दया नहीं की।
 
  
जनार्दन ! इन पाँच पतियों से उत्पन्न हुए मेरे महाबली पाँच पुत्र हैं। उनकी देखभाल के लिये भी मेरी रक्षा आवश्यक थी। [[युधिष्ठिर]] से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, [[नकुल]] से शतानीक और पाण्डव और छोटे [[सहदेव]] से श्रुतकर्मा का जन्म हुआ है। ये सभी कुमार सच्चे पराक्रमी हैं। श्री कृष्ण ! आपका पुत्[[र प्रद्युम्न]] जैसा शूरवीर है, वैसे ही मेरे महारथी पुत्र भी हैं। ये धनुर्विद्या में श्रेष्ठ तथा शत्रुओं द्वारा युद्ध में अजेय हैं तो भी दुर्बल [[धृतराष्ट्र]]-पुत्रों का अत्याचार कैसे सहन करते है? अधर्म से सारा राज्य ग्रहण कर लिया गया, सब पाण्डव दास बना दिये गये और मैं एकवस्त्र धारिणी रजस्वला होने पर भी सभा में घसीटकर लायी गयी। मधुसूदन ! अर्जुन के पास जो गाण्डीव धनुष है, उस पर अर्जुन, भीम अथवा आपके सिवा दूसरा कोई प्रत्यन्चा भी नहीं चढ़ा सकता ( तो ये मेरी रक्षा न कर सके )। कृष्ण ! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, जिसके होते हुए [[दुर्योधन]] इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है। मधुसूदन ! पहले बाल्यावस्था में, जब कि पाण्डव ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए अध्ययन में लगे थे, किसी की हिंसा नहीं करते थे, जिस दुष्ट ने इन्हें इनकी माता के साथ राज्य से बाहर निकाल दिया था। जिस पापी ने भीमसेन के भोजन में नूतन, तीक्ष्ण परिमाण में अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था। महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन ! भीमसेन की आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्न के साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया( इस प्रकार उस दुर्योधन के अत्याचारों को कहाँ तक गिनाया जाय )।
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जब [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से [[ शंकर|भगवान शंकर]] का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारदजी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण ! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष ! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।
  
श्रीकृष्ण ! प्रमाण कोटि तीर्थ में, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधन ने इन्हें बाँधकर गंगा में फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानी में लौट आया। जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनों को तोड.कर जल से ऊपर उठे। इनके सारे अंगों में विषैले काले सर्पो से डँसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके। जागने पर कुन्तीनन्दन भीम ने सब सर्पों को उठा-उठा-कर पटक दिया। दुर्योधन, भीमसेन के प्रिय सारथि को भी उलटे हाथ से मार डाला। इतना ही नहीं, वारणावत में आर्या [[कुन्ती]] के साथ में ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घर में आग लगवा दी, ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवों से इस प्रकार बोलीं- ‘मैं बड़े भारी संकट में पड़ी, आग से घिर गयी। ‘हाय ! हाय ! मैं मारी गयी, अब इस आग से कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथ की तरह अपने बालक पुत्रों के साथ नष्ट हो जाऊँगी‘। उस समय वहाँ वायु के समान वेग और पराक्रम वाले महाबाहु [[भीम|भीमसेन]] आर्या कुन्ती तथा भाइयों को आश्वासन देते हुए कहा--‘पक्षियों में श्रेष्ठ विनता नन्दन गरुड जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सब को लेकर यहाँ से चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं हैं ‘।
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- जनमेजय ! [[कृष्ण|श्री कृष्ण]] के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब भगवान जनार्दन ने [[कुन्ती]] कुमार से इस प्रकार कहा-- ‘पार्थ  ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर ! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर- नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है।' ‘कुन्तीकुमार ! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - जनमेजय ! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई [[पांचाल]] राजकुमारी [[द्रौपदी]] भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।
  
{{लेख क्रम |पिछला= महाभारत वनपर्व अध्याय 12 श्लोक 33-62|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 12 श्लोक 91-115 }}
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'''द्रौपदी ने कहा''' - प्रभो ! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का सृष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धष [[मधुसूदन]] ! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन [[परशुराम]] का कथन है। पुरुषोत्तम ! कश्यपजी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर ! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर [[नारद|नारदजी]] ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, [[इन्द्र]] आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो ! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम ! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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१३:२३, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद

जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से भगवान शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारदजी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण ! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष ! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! श्री कृष्ण के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब भगवान जनार्दन ने कुन्ती कुमार से इस प्रकार कहा-- ‘पार्थ ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर ! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर- नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है।' ‘कुन्तीकुमार ! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई पांचाल राजकुमारी द्रौपदी भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।

द्रौपदी ने कहा - प्रभो ! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का सृष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धष मधुसूदन ! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुराम का कथन है। पुरुषोत्तम ! कश्यपजी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर ! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर नारदजी ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो ! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम ! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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