"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 148 श्लोक 32-52": अवतरणों में अंतर

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१२:४६, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 32-52 का हिन्दी अनुवाद

तब अर्जुन ने उनकी बातों का उत्‍तर देते हुए कहा- माधव ! आपकी कृपा से ही मैं इस प्रतिज्ञा को पार कर सका हूं; अन्यथा इसका पार पाना देवताओं के लिये भी कठिन था। केशव ! आप जिनके रक्षक हैं, उनकी विजय हो; इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है। आपके कृपा-प्रसाद से राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लेंगे। वृष्णिनन्दन ! प्रभो! यह आपका ही प्रभाव और आपकी ही विजय है। मधूसुदन ! आपकी बधाई के पात्र तो हम लोग सदा ही बने रहेंगे। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने धीरे-धीरे घोडों को बढाते हुए उस विशाल एवं क्रुरतापूर्ण संग्राम का दृश्‍य अर्जुन को दिखाना आरम्भ किया।

श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन ! युद्ध में विजय और सब ओर फेले हुए महान सुयश की अभिलाषा रखने वाले ये शूरवीर भूपाल तुम्हारे बाणों से मरकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। इनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण बिखरे पडे़ हैं, घोडे, रथ और हाथी नष्ट हो गये हैं तथा मर्मस्थल छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण ये नरेश भारी व्याकुलता में पड़ गये हैं। कितने ही राजाओं के प्राण चले गये हैं और कितनों के प्राण अभी नहीं निकले हैं। जिनके प्राण निकल गये हैं, वे नरेश भी अत्यन्त कान्ति से प्रकाशित होने के कारण जीवित से दिखायी देते हैं। देखो, यह सारी पृथ्वी उन राजाओं के सुवर्णमय पंख-वाले बाणों, तेज धार वाले नाना प्रकार के शस्त्रों, वाहनों और आयुधों से भरी हुई है। भारत ! चारों ओर गिरे हुए कवच, डाल, हार, कुण्डलयुक्त मस्तक, पगडी, मुकुट, माला, चूडामणि, वस्त्र, कण्ठसूत्र, बाजूबंद, चमकीले निष्क एवं अन्यान्य विचित्र आभूषणों से इस रणभूमि की बडी शोभा हो रही है। बहुत से अनुकर्ष, उपासंग, पताका, ध्वज, सजावट की सामग्री, बैठक, ईषादण्ड, बन्धनरज्जु, टूटे-फूटे पहिये, विचित्र धुरे, नाना प्रकार के जुए, जोत, लगाम, धनुष-बाण, हाथी की रंगीन शूल, हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले गलीचे, परिघ, अकुंश, शक्ति, मिन्दिपाल, तरकत, शूल, फरसे, प्राप्त, तोमर, कुन्त, डंडे, शतघ्‍नी, भुसुण्डी, खड, परशु, मुसल, मुद्रर, गदा, कुणप, सोने के चाबुक, गजराजों के घण्टे, नाना प्रकार के हौदे और जीन, माला, भांति-भांति के अलंकार तथा बहुमुल्य वस्त्र रणभूमि में सब ओर बिखरे पडे़ हैं। भरतश्रेष्ठ ! इनके द्वारा यह भूमि नक्षत्रों द्वारा शरद्ऋतु के आकाश की भांति सुशोभित हो रही है। इस पृथ्वी के राज्य के लिये मारे गये ये पृथ्वीपति अपने सम्पूर्ण अंगो द्वारा प्यारी प्राणबल्‍लाभा के समान इस भूमिका आलिंगन करके इस पर सो रहे हैं। वीर ! देखो, ये पर्वतशिखर के समान प्रतीत होने वाले ऐरावत- जैसे हाथी शस्त्रों द्वारा बने हुए घावों के छिद्र से उसी प्रकार अधिकाधिक रक्त की धारा बहा रहे हैं, जैसे पर्वत अपनी कन्दराओं के मुख से गेरूमिश्रित जल के झरने बहाया करते हैं। वे बाणों से मारे जाकर धरती पर लोट रहे हैं। सोने के जीन एवं साजबाज से विभूषित इन घोडों को तो देखो, ये भी प्राणशून्य होकर पडे़ हैं। वे रथ जिनके स्वामी मारे गये है, गन्धर्वनगर के समान दिखायी देते हैं। इनकी ध्वजा, पताका और धुरे छिन्न-भिन्न हो गये हैं, पहिये नष्ट हो चुके हैं और सारथि भी मार डाले गये हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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