"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 1-30": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "Category:महाभारत अनुशासनपर्व" to "Category:महाभारत अनुशासन पर्व") |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति ११: | पंक्ति ११: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{महाभारत}} | {{सम्पूर्ण महाभारत}} | ||
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत | [[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
१३:४२, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- ब्रह्माजी का देवताओं को आश्वासन, अग्नि की खोज, अग्नि के द्वारा स्थापित किये हुए शिव के तज से सतप्त हो गंगा का उसे मेरु पर्वत पर छोड़ना, कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति, वरुण रुप धारी महादेवजी के यज्ञ में अग्नि से ही प्रजापतियों और सुवर्ण का प्रादुर्भाव, कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध।
देवता बोले- प्रभो ! आपने जिसे वर दे रखा है, वह तारक नामक असुर देवताओं और ऋषियों का बड़ा कष्ट दे रहा है। अतः उसके वध का कोई उपाय कीजिये।पितामह ! देव ! उस असुर से हम लोगों को भारी भय उत्पन्न हो गया है। आप हमारी उससे रक्षा करें; क्योंकि हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है। ब्रह्माजी ने कहा- मेरा तो समस्त प्राणियों के प्रति समान भाव है तथापि मैं अधर्म नहीं पसंद करता; अतः देवताओं तथा ऋषियों का कष्ट देने वाले तारकासुर को तुम लोग शीघ्र ही मार डालो। सुरश्रेष्ठगण। वेदों और धर्मों का उच्छेद न हो, इसका उपाय मैंने पहले से ही कर लिया है। अतः तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। देवता बोले- भगवन ! आपके ही वरदान से दैत्य यह बल के घमण्ड से भर गया है। देवता उसे नहीं मार सकते। ऐसी दशा में वह कैसे शांत हो सकता है। पितामह। उसने आपसे यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि देवताओं, असुरों तथा राक्षसों में से किसी के हाथ से भी मारा न जाऊं। जगत्पते ! पूर्वकाल में जब हमने रूद्राणी की संतति का उच्छेद कर दिया तब उन्होंने सब देवताओं को शाप दे दिया कि तुम्हारे कोई संतान नहीं होगी। ब्रह्माजी बोले- सुरश्रेष्ठगण ! उस शाप के समय वहां अग्निदेव नहीं थे। अतः देवद्रोहियों के वध के लिये वे ही संतान उत्पन्न करेंगे। वही समस्त देवताओं, दानवों, राक्षसों, मनुष्यों, गन्धर्वों, नागों तथा पक्षियों को लांघकर अपने अचूक अस्त्र शक्ति के द्वारा उस असुर का वध कर डालेगा, जिससे तुम्हें भय उत्पन्न हुआ है। दूसरे जो देव शस्त्रु हैं, उनका भी वह संहार कर डालेगा। सनातन संकल्प को ही काम कहते हैं। उसी काम से रूद्र का जो तेज स्खलित होकर अग्नि में गिरा था, उसे अग्नि ने ले रखा है। द्वितीय अग्नि के समान उस महान तेज को वे गंगाजी में स्थापित करके बालक रूप से उत्पन्न करेंगे। वही बालक देव शत्रुओं के वध का कारण होगा। अग्नि देव उस समय छिपे हुए थे, इसलिये वह शाप उन्हें नहीं प्राप्त हुआ; अतः देवताओं ! अग्नि से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह तुम लोगों का सारा भय हर लेगा। तुम लोग अग्नि देव की खोज करो और उन्हें आज ही इस कार्य में नियुक्त करो। निष्पाप देवताओ ! तारकासुर के वध का यह उपाय मैंने बता दिया। तेजस्वी पुरुषों के शाप तेजस्वियों पर अपन प्रभाव नहीं दिखाते। साधारण बली कितने ही क्यों न हों, अत्यन्त बलशाली को पाकर दुर्बल हो जाते हैं। तपस्वी पुरुष का जो काम है, वही संकल्प एवं अभिरूचि के नाम से प्रसिद्व है। वह सनातन या चिरस्थायी होता है। वह वर देने वालो अवध्य पुरुषों का भी वध कर सकता है । अग्निदेव इस जगत के पालक, अनिर्वचनीय, सर्वव्यापी, सबके उत्पादक, समस्त प्राणियों के हृदय में शयन करने वाले, सर्वसमर्थ तथा रूद्र से भी ज्येष्ठ हैं। तेज के राशिभूत अग्निदेव का तुम सब लोग शीघ्र अन्वेषण करो। वे तुम्हारी मनोवांछित कामनाओं को पूर्ण करेंगे।।महात्मा ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर सफल मनोरथ हुए देवता अग्निदेव का अन्वेषण करने के लिये वहां से चले गये। तब देवतओं सहित ऋषियों ने तीनों लोकों में अग्नि की खोज प्रारम्भ की। उन सबका मन उन्हीं में लगा था और वे सभी अग्निदेव का दर्शन करना चाहते थे । भृगुश्रेष्ठ। उत्तम तपस्या से युक्त, तेजस्वी और लोकविख्यात सभी सिद्व देवता सभी लोकों में अग्नि देव की खोज करते रहे । वे छिपकर अपने-आप में ही लीन थे; अतः देवता उनके पास नहीं पहुंच सके। तब अग्नि का दर्शन करने के लिये उत्सुक और भयभीत हुए देवताओं से एक जलचारी मेंढक, जो अग्नि के तेज से दग्ध एवं क्लान्तचित्त होकर रसातल से ऊपर को आया था, बोला- ‘देवताओंयुधिष्ठिर ! अग्नि रसातल में निवास करते हैं। प्रभो ! मैं अग्निजनित संताप सेही घबराकर यहां आया हूं।‘देवगण। भगवान अग्निदेव अपने तेज के साथ जल को संयुक्त करके जल में ही सोये हैं। हम लोग उन्हीं के तेज से संतप्त हो रहे हैं। ‘देवताओं। यदि आपको अग्निदेव का दर्शन अभीष्ट हो और यदि उनसे आपका कोई कार्य हो तो वहीं जाकर उनसे मिलिये । ‘देवगण आप जाइये। हम भी अग्नि के भय से अन्यत्र जायेंगे।’ इतना ही कहकर वह मेंढक तुरंत ही जल में घुस गया।अग्निदेव समझ गये कि मेंढक ने मेरी चुगली खायी है; अतः उन्होंने उसके पास पहुंचकर यह शाप दे दिया कि ‘तुम्हें रस का अनुभव नहीं होगा’ । मेंढक को शाप देकर वे तुरंत दूसरी जगह निवास करने लिये चले गये। सर्वव्यापी अग्नि ने अपने आप को प्रकट नहीं किया। भृगुश्रेष्ठ। महाबाहो। उस समय देवताओं ने मेंढकों पर जो कृपा की, वह सब बता रहा हूं, सुनो ।
« पीछे | आगे » |