"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 70 श्लोक 12-25": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राम्हण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुर में रहने वाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं भी बहुत ही आनन्दित होते । वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राम्हण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते । | इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राम्हण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुर में रहने वाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं भी बहुत ही आनन्दित होते । वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राम्हण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते । भगवान यह सब करते होते, तब तक दारुक नाम का सारथि सुग्रीव आदि घोड़ों से जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान के सामने खड़ा हो जाता । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजी के साथ अपने हाथ से सारथि का हाथ पकड़कर रथ पर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होते । उस समय रनिवास की स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेम से भरी चितवन से उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्ट से उन्हें विदा करतीं। भगवान मुसकराकर उनके चित्त को चुराते हुए महल से निकलते। | ||
परीक्षित्! तदनन्तर | परीक्षित्! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियों के साथ सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश करते। उस सभा की ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभा में जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु—ये छः उर्मियाँ नहीं सतातीं । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण सब रानियों से अलग-अलग विदा होकर एक ही रूप में सुधर्मा-सभा में प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर विराज जाते। उनकी अंगकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरों के बीच में यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा होती, जैसे आकाश में तारों से घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं । परीक्षित्! सभा में विदूषक लोग विभिन्न प्रकार के हास्य-विनोद से, नटाचार्य अभिनय से और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्यों से अलग-अलग अपनी टोलियों के साथ भगवान की सेवा करतीं । उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान की स्तुति करते कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राम्हण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पुर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियों के चरित्र कह-कहकर सुनाते ।एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया । उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया— ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । | ||
१२:१०, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः(70) (उत्तरार्ध)
इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राम्हण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुर में रहने वाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं भी बहुत ही आनन्दित होते । वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राम्हण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते । भगवान यह सब करते होते, तब तक दारुक नाम का सारथि सुग्रीव आदि घोड़ों से जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान के सामने खड़ा हो जाता । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजी के साथ अपने हाथ से सारथि का हाथ पकड़कर रथ पर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होते । उस समय रनिवास की स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेम से भरी चितवन से उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्ट से उन्हें विदा करतीं। भगवान मुसकराकर उनके चित्त को चुराते हुए महल से निकलते।
परीक्षित्! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियों के साथ सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश करते। उस सभा की ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभा में जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु—ये छः उर्मियाँ नहीं सतातीं । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण सब रानियों से अलग-अलग विदा होकर एक ही रूप में सुधर्मा-सभा में प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर विराज जाते। उनकी अंगकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरों के बीच में यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा होती, जैसे आकाश में तारों से घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं । परीक्षित्! सभा में विदूषक लोग विभिन्न प्रकार के हास्य-विनोद से, नटाचार्य अभिनय से और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्यों से अलग-अलग अपनी टोलियों के साथ भगवान की सेवा करतीं । उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान की स्तुति करते कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राम्हण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पुर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियों के चरित्र कह-कहकर सुनाते ।एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया । उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया— ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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