"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 21-25": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद </div>


भगवन्! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं<ref> कोई-कोई विरले सुद्धान्तःकरण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्र में विहार करते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को तृण के समान तुच्छ बना देते हैं।</ref>|
प्रभो! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल शरीर को पाकर भी लोग संख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी आर असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्ट की बात है! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार मीन भटकना पड़ता है<ref>आप जगत् के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवन में ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे स्वामी! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकार का मनुष्य जन्म प्राप्त होगा ?</ref>।
प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा ह्रदय में आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है की उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन्! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है—यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करती रहती है। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है<ref> देव! आपके चरणों का प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह! मुझे तो आपके चरणों का स्मरण दिन-रात बना रहे।</ref>।
भगवन्! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं [[ब्रम्हा|ब्रम्हाजी]], निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महतत्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन ही सर्वोत्तम मार्ग है।)<ref>अनन्त! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियों से घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदि के अगोचर स्वरुप! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु! नरहरि देव! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।</ref>। प्रभो! कुछ लोग मानते हैं की असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं की सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप रूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं की ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकार भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरुप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है<ref>अनन्त महिमाशाली प्रभो! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कों के द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवाद के घोर अन्धकार में भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञान का मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवन में ऐसी सौभाग्य की घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, [[शंकर|श्रीशंकर]], श्रीपते, [[गोविन्द]], मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्द में भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।</ref>।


भगवन्! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं |
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय  87 श्लोक 17-20|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 26-29}}
प्रभो! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल शरीर को पाकर भी लोग संख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी आर असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्ट की बात है! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार मीन भटकना पड़ता है ।
प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा ह्रदय में आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है की उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन्! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है—यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करती रहती है। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है ।
भगवन्! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रम्हाजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महतत्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन ही सर्वोत्तम मार्ग है।)  । प्रभो! कुछ लोग मानते हैं की असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं की सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप रूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं की ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकार भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरुप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है ।
 
 
 
 
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय  87 श्लोक 17-20|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 26-28}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०८:१९, ५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद

भगवन्! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं[१]| प्रभो! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल शरीर को पाकर भी लोग संख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी आर असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्ट की बात है! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार मीन भटकना पड़ता है[२]। प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा ह्रदय में आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है की उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन्! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है—यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करती रहती है। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है[३]। भगवन्! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रम्हाजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महतत्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन ही सर्वोत्तम मार्ग है।)[४]। प्रभो! कुछ लोग मानते हैं की असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं की सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप रूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं की ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकार भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरुप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है[५]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कोई-कोई विरले सुद्धान्तःकरण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्र में विहार करते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को तृण के समान तुच्छ बना देते हैं।
  2. आप जगत् के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवन में ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे स्वामी! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकार का मनुष्य जन्म प्राप्त होगा ?
  3. देव! आपके चरणों का प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह! मुझे तो आपके चरणों का स्मरण दिन-रात बना रहे।
  4. अनन्त! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियों से घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदि के अगोचर स्वरुप! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु! नरहरि देव! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।
  5. अनन्त महिमाशाली प्रभो! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कों के द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवाद के घोर अन्धकार में भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञान का मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवन में ऐसी सौभाग्य की घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशंकर, श्रीपते, गोविन्द, मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्द में भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।

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