"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-4": अवतरणों में अंतर
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<h4 style="text-align:center;">योद्धाओं के धर्म का वर्णन तथा रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा </h4> | <h4 style="text-align:center;">योद्धाओं के धर्म का वर्णन तथा रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा </h4> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
भगवान महेश्वर कहते हैं- राजा भाँति-भाँति के भोग, वस्त्र और आभूषण देकर जिन लोगों को अपनी सहायता के लिये बुलाता और रखता है, उनके साथ भोजन करके घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है और नाना प्रकार के सत्कारों द्वारा उन्हें संतुष्ट करता है, ऐसे योद्धाओं को उचित है कि युद्ध छिड़ जाने पर सहायता के समय उस राजा के लिये शस्त्र उठावे। जब घोर संग्राम में शूरवीर एक-दूसरे को मारते और मारे जाते हों, उस अवसर पर जो नराधम सैनिक पीठ देकर सेनानायक की इच्छा न होते हुए भी बिना घायल हुए ही युद्ध से मुँह मोड़ लेते हैं, वे सेनापति के सम्पूर्ण पापों को स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं और उन भगेड़ों के पास जो कुछ भी पुण्य होता है, वह सेनानायक को प्राप्त हो जाता है। ‘अहिंसा परम धर्म है,’ ऐसी जिनकी मान्यता है, वे भी यदि राजा के सेवक हैं, उनसे भरण-पोषण की सुविधा एवं भोजन पाते हैं, ऐसी दषा में भी वे अपनी शक्ति के अनुरूप संग्रामों में जूझते नहीं हैं तो घोर नरक में पड़ते हैं, क्योंकि वे स्वामी के अन्न का अपहरण करने वाले हैं। जो अपने प्राणों की परवाह छोड़कर पतंग की भाँति निर्भय हो हाथ में हथयार उठाये अग्नि के समान विनाशकारी संग्राम में प्रवेष कर जाता है और योद्धा को मिलने वाली निश्चित गति को जाकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। जो अत्यन्त घोर समरांगण में मृगों के झुंडों को संतप्त करने वाले सिंह के समान शत्रुसैनिकों को ताप देता हुआ अपने नायक (राजा या सेनापति) की रक्षा करता है, मध्यान्हकाल के सूर्य की भाँति रणक्षेत्र में जिसकी ओर देखना शत्रुओं के लिये अत्यन्त कठिन हो जाता है तथा जो संग्राम में शस्त्र उठाये निर्दयतापूर्वक प्रहार करता है, वह शुद्धचित्त होकर उस युद्ध के द्वारा ही मानो महान यज्ञ का अनुष्ठान करता है। उस समय कवच ही उसका काला मृगचर्म है, धनुष ही दाँतुन या दन्तकाष्ठ है, रथ ही वेदी है, ध्वज यूप है और रथ की रस्सियाँ ही बिछे हुए कुषों का काम देती हैं। मान, दर्प और अहंकार- ये त्रिविध अग्नियाँ हैं, चाबुक, स्त्रुवा है, सारथि उपाध्याय है, स्त्रुक्-भाण्ड आदि जो कुछ भी यज्ञ की सामग्री है, उसके स्थान में उस योद्धा के भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र हैं। सायकों को ही समिधा माना गया है। उस यशस्वी वीर के अंगों से जो पसीने ढलते हैं, वे ही मानो मधु हैं। मनुष्यों के मस्तक पुरोडाष हैं, रूधिर आहुति है, तूणीरों को चरू समझना चाहिये। वसा को ही वसुधारा माना गया है, मांसभक्षी भूतों के समुदाय ही उस यज्ञ में द्विज हैं। मारे गये मनुष्य, हाथी और घोड़े ही उनके भोजन और अन्नपान हैं। मारे गये योद्धाओं के जो वस्त्र, आभूषण और सुवर्ण हैं, वे ही मानो उस रणयज्ञ की दक्षिणा हैं। देवि! जो संग्राम में हाथी की पीठ पर बैठा हुआ युद्ध के मुहाने पर मारा जाता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। रथ के बीच में बैठा हुआ या घोड़े की पीठ पर चढ़ा हुआ जो वीर युद्ध में मारा जाता है, वह इन्द्रलोक में सम्मानित होता है। मारे गये योद्धा स्वर्ग में पूजित होते हैं, किन्तु मारने वाला इसी लोक में प्रशंसित होता है। अतः युद्ध में दोनों ही सुखी होते हैं- जो मारता है वह और जो मारा जाता है वह। | |||
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१२:०६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
योद्धाओं के धर्म का वर्णन तथा रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
भगवान महेश्वर कहते हैं- राजा भाँति-भाँति के भोग, वस्त्र और आभूषण देकर जिन लोगों को अपनी सहायता के लिये बुलाता और रखता है, उनके साथ भोजन करके घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है और नाना प्रकार के सत्कारों द्वारा उन्हें संतुष्ट करता है, ऐसे योद्धाओं को उचित है कि युद्ध छिड़ जाने पर सहायता के समय उस राजा के लिये शस्त्र उठावे। जब घोर संग्राम में शूरवीर एक-दूसरे को मारते और मारे जाते हों, उस अवसर पर जो नराधम सैनिक पीठ देकर सेनानायक की इच्छा न होते हुए भी बिना घायल हुए ही युद्ध से मुँह मोड़ लेते हैं, वे सेनापति के सम्पूर्ण पापों को स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं और उन भगेड़ों के पास जो कुछ भी पुण्य होता है, वह सेनानायक को प्राप्त हो जाता है। ‘अहिंसा परम धर्म है,’ ऐसी जिनकी मान्यता है, वे भी यदि राजा के सेवक हैं, उनसे भरण-पोषण की सुविधा एवं भोजन पाते हैं, ऐसी दषा में भी वे अपनी शक्ति के अनुरूप संग्रामों में जूझते नहीं हैं तो घोर नरक में पड़ते हैं, क्योंकि वे स्वामी के अन्न का अपहरण करने वाले हैं। जो अपने प्राणों की परवाह छोड़कर पतंग की भाँति निर्भय हो हाथ में हथयार उठाये अग्नि के समान विनाशकारी संग्राम में प्रवेष कर जाता है और योद्धा को मिलने वाली निश्चित गति को जाकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। जो अत्यन्त घोर समरांगण में मृगों के झुंडों को संतप्त करने वाले सिंह के समान शत्रुसैनिकों को ताप देता हुआ अपने नायक (राजा या सेनापति) की रक्षा करता है, मध्यान्हकाल के सूर्य की भाँति रणक्षेत्र में जिसकी ओर देखना शत्रुओं के लिये अत्यन्त कठिन हो जाता है तथा जो संग्राम में शस्त्र उठाये निर्दयतापूर्वक प्रहार करता है, वह शुद्धचित्त होकर उस युद्ध के द्वारा ही मानो महान यज्ञ का अनुष्ठान करता है। उस समय कवच ही उसका काला मृगचर्म है, धनुष ही दाँतुन या दन्तकाष्ठ है, रथ ही वेदी है, ध्वज यूप है और रथ की रस्सियाँ ही बिछे हुए कुषों का काम देती हैं। मान, दर्प और अहंकार- ये त्रिविध अग्नियाँ हैं, चाबुक, स्त्रुवा है, सारथि उपाध्याय है, स्त्रुक्-भाण्ड आदि जो कुछ भी यज्ञ की सामग्री है, उसके स्थान में उस योद्धा के भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र हैं। सायकों को ही समिधा माना गया है। उस यशस्वी वीर के अंगों से जो पसीने ढलते हैं, वे ही मानो मधु हैं। मनुष्यों के मस्तक पुरोडाष हैं, रूधिर आहुति है, तूणीरों को चरू समझना चाहिये। वसा को ही वसुधारा माना गया है, मांसभक्षी भूतों के समुदाय ही उस यज्ञ में द्विज हैं। मारे गये मनुष्य, हाथी और घोड़े ही उनके भोजन और अन्नपान हैं। मारे गये योद्धाओं के जो वस्त्र, आभूषण और सुवर्ण हैं, वे ही मानो उस रणयज्ञ की दक्षिणा हैं। देवि! जो संग्राम में हाथी की पीठ पर बैठा हुआ युद्ध के मुहाने पर मारा जाता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। रथ के बीच में बैठा हुआ या घोड़े की पीठ पर चढ़ा हुआ जो वीर युद्ध में मारा जाता है, वह इन्द्रलोक में सम्मानित होता है। मारे गये योद्धा स्वर्ग में पूजित होते हैं, किन्तु मारने वाला इसी लोक में प्रशंसित होता है। अतः युद्ध में दोनों ही सुखी होते हैं- जो मारता है वह और जो मारा जाता है वह।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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