"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-22": अवतरणों में अंतर

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भीष्म का अद्भुत पराक्रम करते हुए पाण्डवसेना का भीषण संहार
भीष्म का अद्भुत पराक्रम करते हुए पाण्डवसेना का भीषण संहार


संजय कहते हैं - भरतनन्दन! दोनों पक्ष की सेनाओं को समान रूप से व्यूहबंद करके खड़ा किया गया था। अधिकांश सैनिक उस व्यूह में ही स्थित थे। वे सब के सब युद्ध में पीठ न दिखाने वाले तथा ब्रह्मलोक को ही अपना परम लक्ष्य मानकर युद्ध में तत्पर रहने वाले थे। परंतु उस घमासान युद्ध में (सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और युद्ध के निश्‍चितनियमों का उल्लघंन होने लगा) सेनासेना के साथ योग्यतानुसार नहीं लड़ती थी, न रथी रथियों के साथ युद्ध करते थें, न पैदल पैदलों के साथ। घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और हाथी सवार हाथी सवारों के साथ नहीं लड़ते थे। भरतवंशी महाराज! सबलोग उन्मत्त से होकर वहां योग्यता का विचार किये बिना सबके साथ युद्ध करते थे। उन दोनों सेनाओंमें अत्यन्त भयंकर घोलमेल हो गया। इसी तरह मनुष्य और हाथियों के समूह सब ओर बिखर गये थे। उस महाभयंकर युद्ध में किसी की कोई विशेष पहचान नहीं रह गयी थी। भरत! तदनन्तर शल्य, कृपाचार्य, चित्रसेन, दुःशासन और विकर्ण-ये कौरववीर चमचमाते हुए रथों पर बैठकर पाण्डवों पर चढ़ आये और रणक्षेत्र में उनकी सेनाको कंपाने लगे।  राजन! जैसे वायु के थपेड़े खाकर नौका जल में चक्कर काटने लगती है, उसी प्रकार उन मामनस्वी वीरों द्वारा समरागंण में मारी जाती हुई पाण्डव सेना बहुधा इधर-उधर भटक रही थी। जैसे शिशिरकाल गोओं के मर्म स्थानों का उच्छेद करने लगता है, उसी प्रकार भीष्म पाण्डवों मर्मस्थानों को विदीर्ण करने लगे। इसी प्रकार महात्मा अर्जुन ने आपकी सेना के नूतन मेघ के समान काले रंगवाले बहुत से हाथी मार गिराये। अर्जुन के द्वारा बहुत से पैदलों के यूथपति मिट्टी में मिलते दिखायी दे रहे थे। नाराचों और बाणों से पीड़ितहुए सहस्त्रों महान गज घोर आर्तनाद करके पृथ्वी पर गिर रहे थे। मारे गये महामनस्वी वीरों के आमरणभूषित शरीरों और कुण्डल मण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई वह रणभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। महाराज! बडे़-बडे़ वीरों का विनाशकरने वाले उस महायुद्ध में जब एक ओर भीष्म ओर दूसरी ओर पाण्डुनन्दन धनंजय पराक्रम प्रकट कर रहे थे, उस समय पितामह भीष्म को महान पराक्रम में प्रवृत देख आपके सभी पुत्र सेनाओं के साथ स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बनाकर युद्ध में मृत्यु चाहते हुए पाण्डवों पर चढ आये। राजन! नरेश्‍वर। शूरवीर पाण्डव भी पुत्रों सहित आपके दिये हुए नाना प्रकार केअनेक क्लेशोंका स्मरण करके युद्ध में भय छोड़कर ब्रह्मलोकआने के लिये उत्सुक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके सैनिकों और पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय समर भूमि में पाण्डव सेनापति महारथी धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना से कहा- ‘ सोम को ! तुम संजय वीरों को साथ लेकर गंगानन्दन भीष्म पर टूट पडे़।’  सेनापति की यह बात सुनकर सोमक और सृंजय वीर बाणों की भारी वर्षा से घायल होने पर भी गंगानन्दन भीष्म की ओर दोड़े। राजन ! तब आपके पितृतुल्य शान्तनुनन्दन भीष्म बाणों की मार खाकर अमर्षमें भर गये और सृंजयोंके साथ युद्ध करने लगे। तात! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान परशुरामजी ने उन यशस्वी भीष्म को शत्रु सेना का विनाश करने वाली जो अस्त्र शिक्षा प्रदान की थी, उसका आश्रय लेकर पाण्डव पक्षीय शत्रुसेना का संहार करतेहुए कुरूकुल के वृद्ध पितामह एवं शत्रुवीरों का नाश करने वाले भीष्म नित्यप्रति दस हजार मुख्य योद्धाओं का वध करते आ रहे थे।  
संजय कहते हैं - भरतनन्दन! दोनों पक्ष की सेनाओं को समान रूप से व्यूहबंद करके खड़ा किया गया था। अधिकांश सैनिक उस व्यूह में ही स्थित थे। वे सब के सब युद्ध में पीठ न दिखाने वाले तथा ब्रह्मलोक को ही अपना परम लक्ष्य मानकर युद्ध में तत्पर रहने वाले थे। परंतु उस घमासान युद्ध में (सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और युद्ध के निश्‍चितनियमों का उल्लघंन होने लगा) सेनासेना के साथ योग्यतानुसार नहीं लड़ती थी, न रथी रथियों के साथ युद्ध करते थें, न पैदल पैदलों के साथ। घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और हाथी सवार हाथी सवारों के साथ नहीं लड़ते थे। भरतवंशी महाराज! सबलोग उन्मत्त से होकर वहां योग्यता का विचार किये बिना सबके साथ युद्ध करते थे। उन दोनों सेनाओंमें अत्यन्त भयंकर घोलमेल हो गया। इसी तरह मनुष्य और हाथियों के समूह सब ओर बिखर गये थे। उस महाभयंकर युद्ध में किसी की कोई विशेष पहचान नहीं रह गयी थी। भरत! तदनन्तर शल्य, कृपाचार्य, चित्रसेन, दुःशासन और विकर्ण-ये कौरववीर चमचमाते हुए रथों पर बैठकर पाण्डवों पर चढ़ आये और रणक्षेत्र में उनकी सेनाको कंपाने लगे।  राजन! जैसे वायु के थपेड़े खाकर नौका जल में चक्कर काटने लगती है, उसी प्रकार उन मामनस्वी वीरों द्वारा समरागंण में मारी जाती हुई पाण्डव सेना बहुधा इधर-उधर भटक रही थी।<br />
जैसे शिशिरकाल गोओं के मर्म स्थानों का उच्छेद करने लगता है, उसी प्रकार भीष्म पाण्डवों मर्मस्थानों को विदीर्ण करने लगे। इसी प्रकार महात्मा अर्जुन ने आपकी सेना के नूतन मेघ के समान काले रंगवाले बहुत से हाथी मार गिराये। अर्जुन के द्वारा बहुत से पैदलों के यूथपति मिट्टी में मिलते दिखायी दे रहे थे। नाराचों और बाणों से पीड़ितहुए सहस्त्रों महान गज घोर आर्तनाद करके पृथ्वी पर गिर रहे थे। मारे गये महामनस्वी वीरों के आमरणभूषित शरीरों और कुण्डल मण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई वह रणभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। महाराज! बडे़-बडे़ वीरों का विनाशकरने वाले उस महायुद्ध में जब एक ओर भीष्म ओर दूसरी ओर पाण्डुनन्दन धनंजय पराक्रम प्रकट कर रहे थे, उस समय पितामह भीष्म को महान पराक्रम में प्रवृत देख आपके सभी पुत्र सेनाओं के साथ स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बनाकर युद्ध में मृत्यु चाहते हुए पाण्डवों पर चढ आये। राजन! नरेश्‍वर। शूरवीर पाण्डव भी पुत्रों सहित आपके दिये हुए नाना प्रकार केअनेक क्लेशोंका स्मरण करके युद्ध में भय छोड़कर ब्रह्मलोकआने के लिये उत्सुक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके सैनिकों और पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय समर भूमि में पाण्डव सेनापति महारथी धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना से कहा- ‘ सोम को ! तुम संजय वीरों को साथ लेकर गंगानन्दन भीष्म पर टूट पडे़।’  सेनापति की यह बात सुनकर सोमक और सृंजय वीर बाणों की भारी वर्षा से घायल होने पर भी गंगानन्दन भीष्म की ओर दोड़े। राजन ! तब आपके पितृतुल्य शान्तनुनन्दन भीष्म बाणों की मार खाकर अमर्षमें भर गये और सृंजयोंके साथ युद्ध करने लगे। तात! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान परशुरामजी ने उन यशस्वी भीष्म को शत्रु सेना का विनाश करने वाली जो अस्त्र शिक्षा प्रदान की थी, उसका आश्रय लेकर पाण्डव पक्षीय शत्रुसेना का संहार करतेहुए कुरूकुल के वृद्ध पितामह एवं शत्रुवीरों का नाश करने वाले भीष्म नित्यप्रति दस हजार मुख्य योद्धाओं का वध करते आ रहे थे।  


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==संबंधित लेख==
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०८:३७, २५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म का अद्भुत पराक्रम करते हुए पाण्डवसेना का भीषण संहार

संजय कहते हैं - भरतनन्दन! दोनों पक्ष की सेनाओं को समान रूप से व्यूहबंद करके खड़ा किया गया था। अधिकांश सैनिक उस व्यूह में ही स्थित थे। वे सब के सब युद्ध में पीठ न दिखाने वाले तथा ब्रह्मलोक को ही अपना परम लक्ष्य मानकर युद्ध में तत्पर रहने वाले थे। परंतु उस घमासान युद्ध में (सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और युद्ध के निश्‍चितनियमों का उल्लघंन होने लगा) सेनासेना के साथ योग्यतानुसार नहीं लड़ती थी, न रथी रथियों के साथ युद्ध करते थें, न पैदल पैदलों के साथ। घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और हाथी सवार हाथी सवारों के साथ नहीं लड़ते थे। भरतवंशी महाराज! सबलोग उन्मत्त से होकर वहां योग्यता का विचार किये बिना सबके साथ युद्ध करते थे। उन दोनों सेनाओंमें अत्यन्त भयंकर घोलमेल हो गया। इसी तरह मनुष्य और हाथियों के समूह सब ओर बिखर गये थे। उस महाभयंकर युद्ध में किसी की कोई विशेष पहचान नहीं रह गयी थी। भरत! तदनन्तर शल्य, कृपाचार्य, चित्रसेन, दुःशासन और विकर्ण-ये कौरववीर चमचमाते हुए रथों पर बैठकर पाण्डवों पर चढ़ आये और रणक्षेत्र में उनकी सेनाको कंपाने लगे। राजन! जैसे वायु के थपेड़े खाकर नौका जल में चक्कर काटने लगती है, उसी प्रकार उन मामनस्वी वीरों द्वारा समरागंण में मारी जाती हुई पाण्डव सेना बहुधा इधर-उधर भटक रही थी।
जैसे शिशिरकाल गोओं के मर्म स्थानों का उच्छेद करने लगता है, उसी प्रकार भीष्म पाण्डवों मर्मस्थानों को विदीर्ण करने लगे। इसी प्रकार महात्मा अर्जुन ने आपकी सेना के नूतन मेघ के समान काले रंगवाले बहुत से हाथी मार गिराये। अर्जुन के द्वारा बहुत से पैदलों के यूथपति मिट्टी में मिलते दिखायी दे रहे थे। नाराचों और बाणों से पीड़ितहुए सहस्त्रों महान गज घोर आर्तनाद करके पृथ्वी पर गिर रहे थे। मारे गये महामनस्वी वीरों के आमरणभूषित शरीरों और कुण्डल मण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई वह रणभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। महाराज! बडे़-बडे़ वीरों का विनाशकरने वाले उस महायुद्ध में जब एक ओर भीष्म ओर दूसरी ओर पाण्डुनन्दन धनंजय पराक्रम प्रकट कर रहे थे, उस समय पितामह भीष्म को महान पराक्रम में प्रवृत देख आपके सभी पुत्र सेनाओं के साथ स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बनाकर युद्ध में मृत्यु चाहते हुए पाण्डवों पर चढ आये। राजन! नरेश्‍वर। शूरवीर पाण्डव भी पुत्रों सहित आपके दिये हुए नाना प्रकार केअनेक क्लेशोंका स्मरण करके युद्ध में भय छोड़कर ब्रह्मलोकआने के लिये उत्सुक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके सैनिकों और पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय समर भूमि में पाण्डव सेनापति महारथी धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना से कहा- ‘ सोम को ! तुम संजय वीरों को साथ लेकर गंगानन्दन भीष्म पर टूट पडे़।’ सेनापति की यह बात सुनकर सोमक और सृंजय वीर बाणों की भारी वर्षा से घायल होने पर भी गंगानन्दन भीष्म की ओर दोड़े। राजन ! तब आपके पितृतुल्य शान्तनुनन्दन भीष्म बाणों की मार खाकर अमर्षमें भर गये और सृंजयोंके साथ युद्ध करने लगे। तात! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान परशुरामजी ने उन यशस्वी भीष्म को शत्रु सेना का विनाश करने वाली जो अस्त्र शिक्षा प्रदान की थी, उसका आश्रय लेकर पाण्डव पक्षीय शत्रुसेना का संहार करतेहुए कुरूकुल के वृद्ध पितामह एवं शत्रुवीरों का नाश करने वाले भीष्म नित्यप्रति दस हजार मुख्य योद्धाओं का वध करते आ रहे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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