"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर

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==पंद्रहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)==
==पञ्चदश (15) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : पंद्रहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्!दु्रपदकुमारी का यह बचन सुनकर अपनी मर्यादा से कभी व्युत न होने वाले बडे़ भाई महाबाहु युधिष्ठिरका सम्मान करते हुए अर्जुन ने फिर इस प्रकार कहा।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्!दु्रपदकुमारी का यह बचन सुनकर अपनी मर्यादा से कभी व्युत न होने वाले बडे़ भाई महाबाहु युधिष्ठिरका सम्मान करते हुए अर्जुन ने फिर इस प्रकार कहा।


अर्जुन बोले- राजन्! दण्ड समस्त प्रजाओं का शासन करता है, दण्ड ही उनकी सब ओर से रक्षा करता है, सबके सो जाने पर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरूषों ने दण्ड को राजा का धर्म माना है। जनेश्वर! दण्ड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है, वही काम का भी रक्षक है, अतः दण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है। दण्ड से धान्य की रक्षा होती है, उसी से धनकी भी रक्षा होती है; ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत् के व्यवहार पर दृष्टि डालिये। कितने ही पापी राजदण्ड के भय से पाप नहीं करते हैं। कुछ लोग यमदण्ड के भयसे, कोई परलोग के भय से और कितने ही पापी आपस में एक दूसरे के भय से पाप नहीं करते हैं। जगत् की ऐसी ही स्वाभाविक स्थित है; इसलिये सब कुछ दण्ड में ही प्रतिष्ठित है। बहुत- से मनुष्य दण्ड के के ही भय से एक दूसरे को खा नहीं जाते हैं, यदि दण्ड रक्षा न करे तो सब लोग घोर अन्धकार में डूब जायॅं। यह उदण्ड मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है, अतः उस दमन और दण्ड के कारण ही विद्वान पुरूष इसे दण्ड कहते हैं। यदिब्राह्मणअपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड ह, क्षत्रिय को भोजनमात्र  के लिये वेतन देकर उससे काम लेना उसका दण्ड है, वैश्यों से जुर्माना के रूप् में धन वसूल करना उनका दण्ड है, परंतु शूद्र दण्डरहित कहा गया है। उससे सेवा लेने के सिबा और कोई दण्ड उसके लिये नहीं है। प्रजानाथ! मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और उनके धन की रक्षा करने के लिये लोक में जो मर्यादा स्थापित की गयी है, उसी का नाम दण्ड है। दण्डनीय पर ऐसी जोर की मार पड़ती है कि उसकी आखों के सामने अधूरा छा जाता है; इसलिये दण्ड को काला कहा गया है, दण्ड देने वाले की आखे क्रोध में लाल रहती हैं; इसलिये उसे लोहिताक्ष कहते हैं। ऐसा दण्ड जहां सर्वथा शासन के लिये उद्यत होकर विचरता रहता है और नेता या शासक अच्छी तरह अपराधों पर दृष्टि रखता है, वहां प्रजा प्रमाद नहीं करती। ब्रहमचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी- ये सभी मनुष्य दण्ड के ही भय से अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं। राजन्! बिना भय के कोई यज्ञ नहीं करता है, बिना भय के कोई दान नहीं करना चाहता है और दण्ड का भय न हो तो कोई पुरूष मर्यादा या प्रतिज्ञा के पालन पर भी स्थिर नहीं रहना चाहता है। मछली मारने वाले मल्लाहों की तरह दूसरों के मर्मस्थानों का उच्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियों को मारे बिना कोई बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता। जो दूसरों का वध नहीं करता, उसे इस संसार में न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता ह  और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वृत्रासुर का वध करने से ही महेन्द्र हो गये। जो देवता दूसरों का वध करने वाले हैं, उन्हीं की संसार अधिक पूजा करता है। रूद्र,स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरूण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरूद्रण, साध्य तथा विश्वेदेव ये सब देवता दूसरों का वध करते हैं; इनके प्रताप के सामने नतमस्तक होकर सब लोग इन्हें नमस्कार करते हैं। पंरतु ब्राह्म, धाता और पूषा की कोई किसी तरह भी पूजा अर्चा नहीं करते हैं; क्यों कि वे सम्पूर्ण प्राणियेां के प्रति समभाव रखने के कारण मध्यस्थ, जितेन्द्रिय, एवं शान्ति परायण हैं। जो शान्त स्वभाव के मनुष्य हैं, वे ही समस्त कर्मां में इन धाता आदिकी पूजा करते हैं। संसार में किसी भी ऐसे पुरूष को मैं नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता हो; क्योंकि प्रबल जीव दुर्बल जीवों द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं। राजन्! नेवला चूहे को खा जाता है और नेवले को विलाव, विलाव को कुत्ता, और कुत्ते को चीता चबा जाता है। परंतु इन सबको मनुष्य मारकर खा जाता है। देखो, कैसा काल आ गया है? यह सम्पूर्ण चराचर जगत् प्राण का अन्न है। यह सब दैवका विधान है। इसमें विद्वान् पुरूष को मोह नहीं होता है। राजेन्द्र! आपको विधाता ने जैसा बनाया है, (जिस जाति और कुल में आपको जन्म दिया है) वैसा ही आपको होना चाहिये। जिनमें क्रोध और हर्ष दोनों ही नहीं रह गये हैं, ये मन्दबुद्धि क्षत्रिय बनमं जाकर तपस्वी बन जाते हैं, परंतु बिना हिंसा किये वे भी जीवन निर्वाह नहीं कर पाते हैं।
अर्जुन बोले- राजन्! दण्ड समस्त प्रजाओं का शासन करता है, दण्ड ही उनकी सब ओर से रक्षा करता है, सबके सो जाने पर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरूषों ने दण्ड को राजा का धर्म माना है। जनेश्वर! दण्ड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है, वही काम का भी रक्षक है, अतः दण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है। दण्ड से धान्य की रक्षा होती है, उसी से धनकी भी रक्षा होती है; ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत् के व्यवहार पर दृष्टि डालिये। कितने ही पापी राजदण्ड के भय से पाप नहीं करते हैं। कुछ लोग यमदण्ड के भयसे, कोई परलोग के भय से और कितने ही पापी आपस में एक दूसरे के भय से पाप नहीं करते हैं। जगत् की ऐसी ही स्वाभाविक स्थित है; इसलिये सब कुछ दण्ड में ही प्रतिष्ठित है। बहुत- से मनुष्य दण्ड के के ही भय से एक दूसरे को खा नहीं जाते हैं, यदि दण्ड रक्षा न करे तो सब लोग घोर अन्धकार में डूब जायॅं। यह उदण्ड मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है, अतः उस दमन और दण्ड के कारण ही विद्वान पुरूष इसे दण्ड कहते हैं। यदिब्राह्मणअपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड ह, क्षत्रिय को भोजनमात्र  के लिये वेतन देकर उससे काम लेना उसका दण्ड है, वैश्यों से जुर्माना के रूप् में धन वसूल करना उनका दण्ड है, परंतु शूद्र दण्डरहित कहा गया है। उससे सेवा लेने के सिबा और कोई दण्ड उसके लिये नहीं है। प्रजानाथ! मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और उनके धन की रक्षा करने के लिये लोक में जो मर्यादा स्थापित की गयी है, उसी का नाम दण्ड है। दण्डनीय पर ऐसी जोर की मार पड़ती है कि उसकी आखों के सामने अधूरा छा जाता है; इसलिये दण्ड को काला कहा गया है, दण्ड देने वाले की आखे क्रोध में लाल रहती हैं; इसलिये उसे लोहिताक्ष कहते हैं। ऐसा दण्ड जहां सर्वथा शासन के लिये उद्यत होकर विचरता रहता है और नेता या शासक अच्छी तरह अपराधों पर दृष्टि रखता है, वहां प्रजा प्रमाद नहीं करती। ब्रहमचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी- ये सभी मनुष्य दण्ड के ही भय से अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं। राजन्! बिना भय के कोई यज्ञ नहीं करता है, बिना भय के कोई दान नहीं करना चाहता है और दण्ड का भय न हो तो कोई पुरूष मर्यादा या प्रतिज्ञा के पालन पर भी स्थिर नहीं रहना चाहता है। मछली मारने वाले मल्लाहों की तरह दूसरों के मर्मस्थानों का उच्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियों को मारे बिना कोई बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता। जो दूसरों का वध नहीं करता, उसे इस संसार में न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता ह  और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वृत्रासुर का वध करने से ही महेन्द्र हो गये। जो देवता दूसरों का वध करने वाले हैं, उन्हीं की संसार अधिक पूजा करता है। रूद्र,स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरूण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरूद्रण, साध्य तथा विश्वेदेव ये सब देवता दूसरों का वध करते हैं; इनके प्रताप के सामने नतमस्तक होकर सब लोग इन्हें नमस्कार करते हैं।
 


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 14 श्लोक 1- 39|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 15 श्लोक 25- 44}}  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 14 श्लोक 21-39|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 15 श्लोक 18-34}}  
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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१३:०८, ५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चदश (15) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्!दु्रपदकुमारी का यह बचन सुनकर अपनी मर्यादा से कभी व्युत न होने वाले बडे़ भाई महाबाहु युधिष्ठिरका सम्मान करते हुए अर्जुन ने फिर इस प्रकार कहा।

अर्जुन बोले- राजन्! दण्ड समस्त प्रजाओं का शासन करता है, दण्ड ही उनकी सब ओर से रक्षा करता है, सबके सो जाने पर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरूषों ने दण्ड को राजा का धर्म माना है। जनेश्वर! दण्ड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है, वही काम का भी रक्षक है, अतः दण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है। दण्ड से धान्य की रक्षा होती है, उसी से धनकी भी रक्षा होती है; ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत् के व्यवहार पर दृष्टि डालिये। कितने ही पापी राजदण्ड के भय से पाप नहीं करते हैं। कुछ लोग यमदण्ड के भयसे, कोई परलोग के भय से और कितने ही पापी आपस में एक दूसरे के भय से पाप नहीं करते हैं। जगत् की ऐसी ही स्वाभाविक स्थित है; इसलिये सब कुछ दण्ड में ही प्रतिष्ठित है। बहुत- से मनुष्य दण्ड के के ही भय से एक दूसरे को खा नहीं जाते हैं, यदि दण्ड रक्षा न करे तो सब लोग घोर अन्धकार में डूब जायॅं। यह उदण्ड मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है, अतः उस दमन और दण्ड के कारण ही विद्वान पुरूष इसे दण्ड कहते हैं। यदिब्राह्मणअपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड ह, क्षत्रिय को भोजनमात्र के लिये वेतन देकर उससे काम लेना उसका दण्ड है, वैश्यों से जुर्माना के रूप् में धन वसूल करना उनका दण्ड है, परंतु शूद्र दण्डरहित कहा गया है। उससे सेवा लेने के सिबा और कोई दण्ड उसके लिये नहीं है। प्रजानाथ! मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और उनके धन की रक्षा करने के लिये लोक में जो मर्यादा स्थापित की गयी है, उसी का नाम दण्ड है। दण्डनीय पर ऐसी जोर की मार पड़ती है कि उसकी आखों के सामने अधूरा छा जाता है; इसलिये दण्ड को काला कहा गया है, दण्ड देने वाले की आखे क्रोध में लाल रहती हैं; इसलिये उसे लोहिताक्ष कहते हैं। ऐसा दण्ड जहां सर्वथा शासन के लिये उद्यत होकर विचरता रहता है और नेता या शासक अच्छी तरह अपराधों पर दृष्टि रखता है, वहां प्रजा प्रमाद नहीं करती। ब्रहमचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी- ये सभी मनुष्य दण्ड के ही भय से अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं। राजन्! बिना भय के कोई यज्ञ नहीं करता है, बिना भय के कोई दान नहीं करना चाहता है और दण्ड का भय न हो तो कोई पुरूष मर्यादा या प्रतिज्ञा के पालन पर भी स्थिर नहीं रहना चाहता है। मछली मारने वाले मल्लाहों की तरह दूसरों के मर्मस्थानों का उच्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियों को मारे बिना कोई बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता। जो दूसरों का वध नहीं करता, उसे इस संसार में न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता ह और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वृत्रासुर का वध करने से ही महेन्द्र हो गये। जो देवता दूसरों का वध करने वाले हैं, उन्हीं की संसार अधिक पूजा करता है। रूद्र,स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरूण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरूद्रण, साध्य तथा विश्वेदेव ये सब देवता दूसरों का वध करते हैं; इनके प्रताप के सामने नतमस्तक होकर सब लोग इन्हें नमस्कार करते हैं।


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