"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 350 श्लोक 1-21": अवतरणों में अंतर

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पञ्चाशदधिकत्रिशततम (350) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

वैजयन्त पर्वत पर ब्रह्मा और रुद्र का मिलन एवं ब्रह्माजी द्वारा परम पुरुष नारायण की महिमा का वर्णन

जनमेजय ने पूछा - ब्रह्मन् ! पुरुष अनेक हैं या एक ? इस जगत् में कौन पुरुष सबसक श्रेष्ठ है ? अथवा किसे यहाँ सबकी उत्पत्ति का सथान बताया जाता है ?

वैयशम्पायनजी ने कहा - कुरुकुल का भार वहन करने वाले नरेश ! सांख्य और योग की विचारधारा के अनुसारइस जगत् मे पुरुष अनेक हैं। वे ‘एकपुरुषवाद’ नहीं स्वीकार करते हैं। बहुत से पुरुषों की उत्पत्ति का स्थान एक ही पुरुष कैसे बताया जाता है ? यह समझाने के लिये आत्मज्ञानी, तपस्वी, जितेन्द्रिय एवं वन्दनीय परमर्षि गुरु व्यासजी को नमस्कार करके मैं तुम्हारे सामने अधिक गुणशाली विश्वात्मा पुरुष की व्याख्या करूँगा। राजन् ! यह पुरुष् सम्बन्धी सूक्त तथा ऋत और सत्य सम्पूर्ण वेदों में विख्यात है। ऋषिेसंह व्यास ने इसका भलीभाँति चिंतन किया है। भारत ! कपिल आदि ऋषियों ने सामान्य और विशेषरूप में अध्यात्म-तत्त्व का चिन्तन करके विभिन्न शास्त्रों का प्रतिपादन किया है। परंतु व्यासजी ने संक्षेप से पुरुष की एकता का जिस तरह प्रतिपादन किया है, उसी को मैं भी उन अमित तेजसवी गुरु के कृपा-प्रसाद से तुमहें बताऊँगा। प्रजानाथ ! इस विषय में जानकर मनुष्य ब्रह्माजी के साथ रुद्र के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। नरेश्वा ! क्षीरसागर में वैजयन्त नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ पर्वत है, जो सुवर्ण की सी कान्ति से प्रकाशित होता है। वहाँ एकाकी ब्रह्मा अध्यात्म गति का चिनतन करने के लिये ब्रह्मलोक से प्रतिदिन आते और उस वैजयन्त पर्वत का सेवन करते थे। पहले एक दिन बुद्धिमान चतुर्मुख ब्रह्माजी जब वहाँ बैइे हुए थे, उसी समय उनके ललाट से उत्पन्न हुए महायोगी त्रिनेत्रधारी भगवान शिव अनायास ही आकाश मार्ग से घूमते हुएवैजयन्ती पर्वत के सामने आये और शीघ्र ही आकाश से उस पर्वत शिखर पर उतर पड़े। सामने ब्रह्माजी को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनके देानों चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। भगवान शिव को अपने चरणों में पड़ा देख उस समय एकमात्र सर्वसमर्थ भगवान प्रजापति ने दाहिने हाथ से उन्हें उठाया और दीर्घकाल के पश्चात् अपने निकट आये हुए पुत्र से इस प्रकार कहा।

ब्रह्माजी बोले - महाबाहो ! तुम्हारा स्वागत है। सौभाग्य से मेरे निकट आये हो। बेटा ! तुम्हारा स्वाध्याय असैा तप सदा सकुशल चल रहा है न ? तुम सर्वदा कठोर तपस्या में ही लीन रहते हो; इसलिये मैं तुमसे बारंबार तप के विषय में पूछजा हूँ।

रुद्र ने कहा - भगवन् ! आपकी कृपा से मेरे स्वाध्याय और तप सकुशल चल रहे हैं; कभी भंग नहीं हुए हैं। सम्पूर्ण जगत् भी कुशल-क्षेम से है। प्रभो ! बहुत दिन हुए, मैंने ब्रह्मलोक में आपका दर्शन किया था। इसीलिये आज आपके चरणों द्वारा सेवित इस पर्वत पर पुनः दर्शन के लिये आया हूँ। पितामह ! आपके एकानत में जाने से मेरे मन में बड़ा कौतूहल पैदा हुआ। मैंने सोचा, इसका कोई छोटा-मोटा कारण नहीं होगा। क्या कारण है कि क्षुधा-पिपासा से रहित उस श्रेष्ठ धाम को जहाँ, निरन्तर देवता, असुर, अमित तेजस्वी ऋषि? गन्धर्व और अप्सराओं के समूह आपकी सेवा में उपस्थित रहते हैं, छोड़कर आप अकेले इस श्रेष्ठ पर्वत पर चले आये हैं ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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