"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 136": अवतरणों में अंतर

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इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल ओजा है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना ,हर्ष और शोक में डोलते रहना , पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मो के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मो का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत् , यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार - बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत मं इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये ? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन , क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी , शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है।  
इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल ओजा है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना ,हर्ष और शोक में डोलते रहना , पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मो के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मो का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत् , यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार - बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत मं इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये ? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन , क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी , शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

जिससे तुम्हारा सारा सांसारिक कर्म घिरा रहता है , जो ज्ञान का चिरशत्रु है जिससे हमारे स्वभाव के अंदर ज्ञान वैसे ही ढका रहता है, जैसे आग धुएं से या दर्पण धूल से । यदि तुम आत्मस्वरूपके शांत, स्वच्छ और प्रकाशमय सत्य में रहना चाहते हो तो इस काम को मार ही डालना होगा। इन्द्रियों, मन और बुद्धि अर्पूर्णता के इस अनादि कारण के अधिष्ठान हैं और इस पर भी तुम इनमें, निम्न प्रकृति की क्रीड़ा में ही सिद्धि की खोज करना चाहते हो यह प्रयास व्यर्थ है। तुम्हारी प्रकृति का जो कर्म - पाश्र्व है उसे पहले निवृत्ति से ऊपर उठाकर उस प्रकृति में लाना होगा जो त्रिगुण के ऊपर है , जो परमत्तव में, आत्मतत्व में प्रतिष्ठित हैं जब तम्हें वह आत्मप्रसाद लाभ होगा तभी तुम मुक्त भागवत कर्म करने में समर्थ होगे। इसके विपरीत शांतिप्रार्थी , वैरागी या संन्यासी किसी ऐसी सिद्धि की संभावना नहीं देखते जिसमें जीवन और कर्म का प्रवेश हो सके। वे कहते हैं क्या जीवन और कर्म ही अपूर्णता और बंधन के घर नहीं हैं ? क्या अपूर्णता कर्म के साथ वैसे ही नहीं लगे रहती जेसे अग्नि के साथ धुंआ? क्या कर्म का धर्म कहीं रासिक नहीं है?
इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल ओजा है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना ,हर्ष और शोक में डोलते रहना , पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मो के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मो का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत् , यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार - बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत मं इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये ? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन , क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी , शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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