"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-20": अवतरणों में अंतर

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== षडशीतितम (86) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)==
==षडशीतितम (86) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: षडशीतितम श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद </div>


भीष्मर उस युद्धस्थल में रथियों के मस्तक काट-काटकर उसी प्रकार गिराने लगे, जैसे कोई कुशल मनुष्यस ताड़-के वृक्षों से पके हुए फलों को गिरा रहा हो। महाराज! भूतलपर पटापट गिरते हुए मस्तकों का आकाश से पृ‍थ्वीए पर पड़ने वाले पत्थरों के समान भयंकर शब्द हो रहा था।
भीष्‍म और युधिष्ठिर का युद्ध, धृष्‍टद्युम्न और सात्यकि के साथ विन्द और अनुविन्द का संग्राम,<br />
उस भयानक तुमुल युद्ध के होते समय सभी सेनाओं का आपस में भारी संघर्ष हो गया। उन सबका व्यूह भङ्ग हो जाने पर भी सम्पूर्ण क्षत्रिय परस्पर एक-एक को ललकराते हुए युद्ध के लिये डटे ही रहे। शि‍खण्डीय भरतवंश के पितामह भीष्म  के पास पहुंचकर उनकी ओर बडे़ वेग से दौड़ा और बोला- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। किंतु भीष्मड ने शिखण्डीव के स्त्रीत्व का चिन्तन करके युद्ध में उसकी अवहेलना कर दी और सृंजयवंशी क्षत्रियों पर क्रोधपूर्वक आक्रमण किया। तब सृंजयगण उस महायुद्ध में हर्ष और उत्साह से भरे हुए भीष्मक को देखकर शङ्खध्वकनि के साथ नाना प्रकार से सिंहनाद करने लगे। प्रभो! जब सूर्य पश्चिम दिशा में ढलने लगे, उस समय युद्ध का रूप और भी भयंकर हो गया। रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गये। पाञ्चालराजकुमार धृष्टीद्यूम्न तथा महारथी सात्यकि ये दोनों शक्ति और तोमरों की वर्षा से कौरवसेना की अत्यन्त पीड़ा देने लगे। राजन्! उन दोनों ने युद्ध में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा आपके सैनिकों का संहार करना आरम्भ किया। भरतश्रेष्ठे! उनके द्वारा समर में मारे, जाते हुए आपके सैनिक युद्ध-विषयक श्रेष्ठम बुद्धि का सहारा लेकर ही संग्राम छोड़कर भाग नहीं रहे थे। आपके योद्धा भी रणक्षेत्र में पूर्ण उत्साह के साथ शत्रुओं का संहार करते थे। राजन्! महामना धृष्टेद्यूम्न समराङ्गण में जब आपके योद्धाओं का वध कर रहे थे, उस समय उन महामनस्वी वीरों का आर्तक्रन्दन बडे़ जोर से सुनायी देता था। आपके सैनिकों का वह घोर आर्तनाद सुनकर अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द धृष्ट।द्यूम्न का सामना करने के लिये उपस्थित हुए। उन दोनों महारथिुयों ने बड़ी उतावली के साथ धृष्ट द्यूम्न के घोड़ों को मारकर उन्हें भी अपने बाणों की वर्षा से ढक दिया। तब महाबली धृष्ट द्यूम्न तुरंत ही अपने रथ से कूदकर महामना सात्यकि के रथ पर शीघ्रतापूर्वक चढ़ गये। तदनन्तर विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं को तपाने वाले और क्रोध में भरे हुए विन्द-अनुविन्द पर आक्रमण किया। आर्य! इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन भी सम्पूर्ण उद्योग से समरभूमि में विन्द और अनुविन्द की रक्षा के लिये उन्हें सब ओर से घेरकर खड़ा हो गया। क्षत्रियशिरोमणि अर्जुन भी अत्यन्त कुपित होकर क्षत्रियों के साथ संग्रामभूमि में उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों के साथ करते हैं। आपके पुत्र का प्रिय करने वाले द्रोणाचार्य भी युद्ध में कुपित होकर समस्त पाञ्चालों का विनाश करने लगे, मानो आग रूई के ढेर को जला रही हो। प्रजानाथ! आपके दुर्योधन आदि पुत्र रणक्षेत्र में भीष्म -को घेरकर पाण्डतवों के साथ युद्ध करने लगे। भारत! तदनन्तर जब सूर्यदेव पर संध्याे की लाली छाने लगी, तब राजा दुर्योधन ने आपके सभी योद्धाओं से कहा- जल्दी करो। फिर तो वे सब योद्धा वेग से युद्ध करते हुए दुष्कसर पराक्रम प्रकट करने लगे। उसी समय सूर्य अस्ताचल को चले गये और उनका प्रकाश लुप्त हो गया। इस प्रकार संध्या् होते-होते क्षणभर में रक्त के प्रवाह से परिपूर्ण भयानक नही बह चली और उसके तट पर गीदड़ों की भीड़ जमा हो गयी। भैरव रव फैलाने वाली अमङ्गलमयी सियारिनों तथा भूतगणों से व्याप्त होकर वह युद्ध का मैदान अत्यन्त भयानक हो गया।
द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
संजय कहते हैं- राजन्! रथहीन हुए अपने यशस्वी भाई चित्रसेन के पास जाकर आपके पुत्र विकर्ण ने उसे अपने रथ पर चढा़ लिया। जब इस प्रकार भयंकर और घमासान युद्ध होने लगा, उसी समय शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने तुरंत ही राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। यह देख सृंजयवीर रथ, हाथी और घोड़ों सहित कांप उठे। उन्होंने युधिष्ठिर को मौत के मुख में पड़ा हुआ ही समझा। कुरूनन्दन राजा युधिष्ठिर भी नकुल और सहदेव के साथ महाधनुर्धर पुरूषसिंह शान्तनुनन्दन भीष्‍म का सामना करने के लिये आगे बढे़। जैसे मेघ सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में हजारों बाणों की वर्षा करते हुए पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर ने भीष्‍म को आच्छादित कर दिया। आर्य! उनके द्वारा अच्छी तरह चलाये हुए सैंकड़ों और हजारों बाणों के समूह को गङ्गानन्दन भीष्‍म ने ग्रहण कर लिया (अपने बाणों द्वारा विफल कर दिया)। आर्य! इसी प्रकार भीष्‍म के चलाये हुए बाण समूह भी आकाशमें पक्षियों के झुंड़ के समान दिखायी देने लगे। शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने युद्धस्थल में आधे निमेष में ही पृथक्-पृथक् बाणों का जाल-सा बिछाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को अदृश्‍य कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर ने कुरूवंशी महात्मा भीष्‍म पर विषधर सर्प के समान नाराच का प्रहार किया। राजन्! परंतु महारथी भीष्‍म ने युधिष्ठिर के धनुष से छूटे हुए उस नाराच को अपने पास पहुंचने से पहले ही समरभू‍मि में एक क्षुरप्रद्वारा काट गिराया। <br />
इस प्रकार रणभूमि में काल के समान भयंकर उस नाराचको काटकर भीष्‍म ने कौरव राज युधिष्ठिर के सुवर्णाभूषणों से युक्त घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ में खडे़ हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्‍म पर शक्ति चलायी। कालपाश के समान तीखी एवं भयंकर उस शक्ति को सहसा अपनी ओर आती देख भीष्‍म ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा उसे रणभूमि में काट गिराया ।। तदनन्तर जिसके घोड़ें मारे गये थे, उस रथ को त्याग कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही महामना नकुल के रथ पर आरूढ़ हो गये। उस समय रणक्षेत्र में नकुल और सहदेव को पाकर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्‍म ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें बाणों से आच्छादित कर दिया। महाराज! नकुल और सहदेव को भीष्‍म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित देख युधिष्ठिर अपने मन में भीष्‍म के वध की इच्छा लेकर गहन विचार करने लगे। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने वशवर्ती नरेशों तथा सुहृद्गणों को यह आदेश दिया कि सब लोग मिलकर शान्तनुनन्दन भीष्‍म को मार डालो। तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर समस्त राजाओं ने विशाल रथसमूह के द्वारा पितामह भीष्‍म को चारों ओर से घेर लिया। राजन्! सब ओर से घिरे हुए आपके ताऊ देवव्रत सब महारथियों को धराशायी करते हुए अपने धनुष के द्वारा क्रीडा करने लगे। जैसे सिंह का बच्चा वन के भीतर मृगों के झुंड में घुसकर खेल कर रहा हो, उसी प्रकार कुन्तीकुमारों ने युद्ध में विचरते हुए कुरूवंशी भीष्‍म को वहां देखा। महाराज! वे रणभूमि में वीरों को डांटते और बाणों के द्वारा उन्हें त्रास देते थे। जैसे मृगों के समूह सिंह को देखकर डर जाते हैं, उसी प्रकार सब राजा भीष्‍म को देखकर भयभीत हो गये। जैसे वायु की सहायता से घास-फूस को जलाने की इच्छा वाली अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती हैं, उसी प्रकार भरतवंश के सिंह भीष्‍म के स्वरूप कोरणक्षेत्र में क्षत्रियों ने अत्यन्त तेजस्वी देखा।


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 85 श्लोक 28-40|अगला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 86 श्लोक 21-43}}


 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-20|अगला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 86 श्लोक 45-57}}
<references/>
==संबंधित लेख==
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
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०५:४५, २१ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षडशीतितम (86) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म और युधिष्ठिर का युद्ध, धृष्‍टद्युम्न और सात्यकि के साथ विन्द और अनुविन्द का संग्राम,
द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति संजय कहते हैं- राजन्! रथहीन हुए अपने यशस्वी भाई चित्रसेन के पास जाकर आपके पुत्र विकर्ण ने उसे अपने रथ पर चढा़ लिया। जब इस प्रकार भयंकर और घमासान युद्ध होने लगा, उसी समय शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने तुरंत ही राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। यह देख सृंजयवीर रथ, हाथी और घोड़ों सहित कांप उठे। उन्होंने युधिष्ठिर को मौत के मुख में पड़ा हुआ ही समझा। कुरूनन्दन राजा युधिष्ठिर भी नकुल और सहदेव के साथ महाधनुर्धर पुरूषसिंह शान्तनुनन्दन भीष्‍म का सामना करने के लिये आगे बढे़। जैसे मेघ सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में हजारों बाणों की वर्षा करते हुए पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर ने भीष्‍म को आच्छादित कर दिया। आर्य! उनके द्वारा अच्छी तरह चलाये हुए सैंकड़ों और हजारों बाणों के समूह को गङ्गानन्दन भीष्‍म ने ग्रहण कर लिया (अपने बाणों द्वारा विफल कर दिया)। आर्य! इसी प्रकार भीष्‍म के चलाये हुए बाण समूह भी आकाशमें पक्षियों के झुंड़ के समान दिखायी देने लगे। शान्तनुनन्दन भीष्‍म ने युद्धस्थल में आधे निमेष में ही पृथक्-पृथक् बाणों का जाल-सा बिछाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को अदृश्‍य कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर ने कुरूवंशी महात्मा भीष्‍म पर विषधर सर्प के समान नाराच का प्रहार किया। राजन्! परंतु महारथी भीष्‍म ने युधिष्ठिर के धनुष से छूटे हुए उस नाराच को अपने पास पहुंचने से पहले ही समरभू‍मि में एक क्षुरप्रद्वारा काट गिराया।
इस प्रकार रणभूमि में काल के समान भयंकर उस नाराचको काटकर भीष्‍म ने कौरव राज युधिष्ठिर के सुवर्णाभूषणों से युक्त घोड़ों को मार डाला। घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ में खडे़ हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्‍म पर शक्ति चलायी। कालपाश के समान तीखी एवं भयंकर उस शक्ति को सहसा अपनी ओर आती देख भीष्‍म ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा उसे रणभूमि में काट गिराया ।। तदनन्तर जिसके घोड़ें मारे गये थे, उस रथ को त्याग कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही महामना नकुल के रथ पर आरूढ़ हो गये। उस समय रणक्षेत्र में नकुल और सहदेव को पाकर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्‍म ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें बाणों से आच्छादित कर दिया। महाराज! नकुल और सहदेव को भीष्‍म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित देख युधिष्ठिर अपने मन में भीष्‍म के वध की इच्छा लेकर गहन विचार करने लगे। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने वशवर्ती नरेशों तथा सुहृद्गणों को यह आदेश दिया कि सब लोग मिलकर शान्तनुनन्दन भीष्‍म को मार डालो। तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर समस्त राजाओं ने विशाल रथसमूह के द्वारा पितामह भीष्‍म को चारों ओर से घेर लिया। राजन्! सब ओर से घिरे हुए आपके ताऊ देवव्रत सब महारथियों को धराशायी करते हुए अपने धनुष के द्वारा क्रीडा करने लगे। जैसे सिंह का बच्चा वन के भीतर मृगों के झुंड में घुसकर खेल कर रहा हो, उसी प्रकार कुन्तीकुमारों ने युद्ध में विचरते हुए कुरूवंशी भीष्‍म को वहां देखा। महाराज! वे रणभूमि में वीरों को डांटते और बाणों के द्वारा उन्हें त्रास देते थे। जैसे मृगों के समूह सिंह को देखकर डर जाते हैं, उसी प्रकार सब राजा भीष्‍म को देखकर भयभीत हो गये। जैसे वायु की सहायता से घास-फूस को जलाने की इच्छा वाली अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती हैं, उसी प्रकार भरतवंश के सिंह भीष्‍म के स्वरूप कोरणक्षेत्र में क्षत्रियों ने अत्यन्त तेजस्वी देखा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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