"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय श्लोक 56-72": अवतरणों में अंतर

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==सप्ताधिकशततम (105) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-72 का हिन्दी अनुवाद </div>


वे वीर पाण्डव इस प्रकार सलाह करके सब एक साथ मिलकर अपने पिता पाण्डु के भी पितृतुल्य भीष्मपितामह के पास गये, उनके साथ पराक्रमी भगवान वासुदेव भी थे। उन सबने अस्त्र-षस्त्र और कवच रख दिये थे। वे भीष्म के शिविर की ओर गये और उसके भीतर प्रवेश करके उन्होने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। महाराज ! पाण्ड़वो ने भरत श्रेष्ठ भीष्म की पूजा करते हुए उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और उन्ही की शरण ली।
उस समय कुरूकुल के पितामह महाबाहु भीष्म ने उन सब लोगो से कहा-‘वृष्णिनन्दन ! आपका स्वागत है। धनंजय ! तुम्हारा भी स्वागत है। <br />
धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन और नकुल-सहदेव सबका स्वागत है। आज मैं तुम सब लोगों की प्रसन्नता को बढाने वाला कौनसा कार्य करूँ। पुत्रो ! यु़द्ध के अतिरिक्त जो चाहे, माँग लो, संकोच न करो। तुम्हारी माँग अत्यन्त दुष्कर हो तो भी मैं उसे सब प्रकार से पूर्ण करूँगा। गंगनन्दन भीष्म जब बारंबार इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक कह रहे थे, उस समय राजा युधिष्ठिर ने दीन हृदय से प्रेमपूर्वक यह बात कही।
सर्वज्ञ ! यु़द्ध में हमारी जीत कैसे हो ? हम किस प्रकार राज्य प्राप्त करें ?<br />
प्रभो ! हमारी प्रजा का जीवन संकट में न पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? कृपया यह सब मुझे बताइये। आप स्वयं ही हमें अपने वध का उपाय बताइये। वीर ! समर भूमि में हम लोग आपका वेग कैंसे सह सकते हैं ? कुरूकुल के वृद्ध पितामह ! आपमें कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) नहीं दृष्टिगोचर होता हैं। आप युद्ध में सदा मण्डलाकार धनुष के साथ ही परिलक्षित होते है। महाबाहो ! आप रथ पर दूसरे सूर्य के समान विराजमान होकर कब बाण हाथ में लेते है, कब धनुष पर रखते है और कब उसकी डोरी को खींचते हैं, यह सब हम लोग नहीं देख पाते है।<br />
शत्रुवीरों का नाश करने वाले भरतश्रेष्ठ ! आप रथ, अश्व, पैदल मनुष्य और हाथियों का भी संहार करने वाले है। कौन पुरूष आपको जीतने का साहस कर सकता है। आपने युद्धस्थल में बाणों की वर्षा करके भारी संहार मचा रखा है। रणक्षेत्र में मेरी विशाल सेना आपके द्वारा नष्ट हो चुकी है। पितामह ! हम लोग युद्ध में जिस प्रकार आपको जीत सकें, जिस प्रकार हमें विपुल राज्य की प्राप्ति हो सके और जिस प्रकार मेरी सेना भी सकुशल रह सके, वह उपाय मुझे बताइये।तब पाण्डु के पितृतुल्य शान्तनुकुमार  भीष्मजी ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा- कुन्तीकुमार ! मेरे जीतेजी युद्ध में किसी प्रकार तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। सर्वज्ञ ! मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ। पाण्डवों ! यदि युद्ध के द्वारा मैं किसी प्रकार जीत लिया जाऊँ, तभी तुम लोग रणक्षेत्र में विजयी हो सकोगे। यदि युद्ध में विजय चाहते हो तो मुझपर शीघ्र ही ( घातक ) प्रहार करो। कुन्तीकुमारो ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम सुखपूर्वक मेरे ऊपर प्रहार करो। मैं तुम्हारे लिये यह पुण्य की बात मानता हूँ कि तुम्हें मेरे इस प्रभावका ज्ञान हो गया कि मेरे मारे जाने पर सारी कौरव सेना भरी हुई ही हो जायगी; अतः ऐसा ही करो ( मुझे मार डाला )।
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 37-55|अगला=महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 73-90}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
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०७:०४, २० सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण