"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 171": अवतरणों में अंतर

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इस ज्ञान की धधकती हुई प्रबलता और पवित्रता में उसके कर्म अग्नि में ईधन की तरह जलकर भस्म हो जाते हैं और इनका उसे मन पर कोई लेप या दाग नहीं लगता , वह स्थिर , शांत , अचल , निर्मल , शुभ और पवित्र बना रहता है। कर्तृव्य - अभिमान से शून्य इस मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर , समस्त कर्मो को करना ही दिव्य कर्मी का प्रथम लक्षण है। दूसरा लक्षण है कामना से मुक्ति ; क्योंकि जहां कर्ता का व्यक्तिगत अहंकार नहीं होता वहां कामना का रहना असम्भव हो जाता है , वहां कामना निरहार हो जाती है , निराश्रय हो जाने के कारण अवसन्न होकर क्षीण और नष्ट हो जती है। बाह्मतः मुक्त पुरूष भी दूसरे लोगों की तरह ही समस्त कर्मो को करता हुआ दिखायी देता है शायद वह कर्मो को बड़े पैमाने पर और अधिक शक्तिशाली संकल्प और वेगवती शक्ति के साथ करता है , क्योंकि उसकी सक्रिय प्रकृति में भगवान् के संकल्प का बल काम करता है ; परंतु उसके समस्त उपक्रमों और उद्योगों में कामना के हीनतर भाव और निम्नतर इच्छा का अभाव होता है , उनको अपने कार्मो के फल के लिये आसक्ति नहीं हेाती , और जहां फल के लिये कर्म नहीं किया जाता है बल्कि सब कर्मों के स्वामी का नैव्र्यक्तिक यंत्र बनकर ही सारा कर्म किया जाता है वहां कामना - वासना के लिये कोई स्थान ही नही होता - वहां मालिक के काम को सफलतापूर्वक करने की कोई इच्छा भी नहीं होती , क्योंकि फल तो भगवान् का है उन्ही के द्वारा विहित है , किसी व्यक्तिगत इच्छा या प्रयत्न के द्वारा नहीं , वहां यह इच्छा भी नहीं होती कि मालिक के काम को गौरव के साथ करूं या इस प्रकार करूं जिससे मालिक संतुष्ट हों , क्योंकि यथार्थ में कर्मी तो स्वयं भगवान् हैं , सारी महिमा उनकी शक्ति के उस रूप - विशेष की जिसके जिम्मे प्रकृति में उस कर्म का भर सौंपा गया है , न कि किसी परिच्छिन्न मानव - व्यक्तित्व की। मुक्त पुरूष का अंत:करण और अंतरात्मा कुछ भी नहीं करता , यद्यपि वह अपनी प्रकृति के अंदर से कर्म में नियुक्त तो होता है , पर कर्म करती है वह प्रकृति ,वह कन्नीं शक्ति, वह चिन्मयी भगवती जो अंतर्यामी भगवान् के द्वारा नियंत्रित होती है। इसका यह मबलब नही कि कर्म पूर्ण कौशल के साथ , सफलता के साथ , उपयुक्त साधनों का ठीक - ठीक उपयोग करके न किया जाये। बल्कि , योगस्थ होकर शांति के साथ कर्म करने से कुशल कर्म करना जितना अधिक सुलभ होता है उतना आशा और भय से अंधे होकर या लुड़कती - पुढ़कती बुद्धि के निर्णयों द्वारा लंगड़े बने हुए कर्मो को , या फिर अधीर मानव- इच्छा की उत्सुकता पूर्ण घबराहट के साथ दौड़ - धूप करके कर्म करने से नहीं होता ।
इस ज्ञान की धधकती हुई प्रबलता और पवित्रता में उसके कर्म अग्नि में ईधन की तरह जलकर भस्म हो जाते हैं और इनका उसे मन पर कोई लेप या दाग नहीं लगता , वह स्थिर , शांत , अचल , निर्मल , शुभ और पवित्र बना रहता है। कर्तृव्य - अभिमान से शून्य इस मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर , समस्त कर्मो को करना ही दिव्य कर्मी का प्रथम लक्षण है। दूसरा लक्षण है कामना से मुक्ति ; क्योंकि जहां कर्ता का व्यक्तिगत अहंकार नहीं होता वहां कामना का रहना असम्भव हो जाता है , वहां कामना निरहार हो जाती है , निराश्रय हो जाने के कारण अवसन्न होकर क्षीण और नष्ट हो जती है। बाह्मतः मुक्त पुरूष भी दूसरे लोगों की तरह ही समस्त कर्मो को करता हुआ दिखायी देता है शायद वह कर्मो को बड़े पैमाने पर और अधिक शक्तिशाली संकल्प और वेगवती शक्ति के साथ करता है , क्योंकि उसकी सक्रिय प्रकृति में भगवान् के संकल्प का बल काम करता है ; परंतु उसके समस्त उपक्रमों और उद्योगों में कामना के हीनतर भाव और निम्नतर इच्छा का अभाव होता है , उनको अपने कार्मो के फल के लिये आसक्ति नहीं हेाती , और जहां फल के लिये कर्म नहीं किया जाता है बल्कि सब कर्मों के स्वामी का नैव्र्यक्तिक यंत्र बनकर ही सारा कर्म किया जाता है।<br />
वहां कामना - वासना के लिये कोई स्थान ही नही होता - वहां मालिक के काम को सफलतापूर्वक करने की कोई इच्छा भी नहीं होती , क्योंकि फल तो भगवान् का है उन्ही के द्वारा विहित है , किसी व्यक्तिगत इच्छा या प्रयत्न के द्वारा नहीं , वहां यह इच्छा भी नहीं होती कि मालिक के काम को गौरव के साथ करूं या इस प्रकार करूं जिससे मालिक संतुष्ट हों , क्योंकि यथार्थ में कर्मी तो स्वयं भगवान् हैं , सारी महिमा उनकी शक्ति के उस रूप - विशेष की जिसके जिम्मे प्रकृति में उस कर्म का भर सौंपा गया है , न कि किसी परिच्छिन्न मानव - व्यक्तित्व की। मुक्त पुरूष का अंत:करण और अंतरात्मा कुछ भी नहीं करता , यद्यपि वह अपनी प्रकृति के अंदर से कर्म में नियुक्त तो होता है , पर कर्म करती है वह प्रकृति ,वह कन्नीं शक्ति, वह चिन्मयी भगवती जो अंतर्यामी भगवान् के द्वारा नियंत्रित होती है। इसका यह मबलब नही कि कर्म पूर्ण कौशल के साथ , सफलता के साथ , उपयुक्त साधनों का ठीक - ठीक उपयोग करके न किया जाये। बल्कि , योगस्थ होकर शांति के साथ कर्म करने से कुशल कर्म करना जितना अधिक सुलभ होता है उतना आशा और भय से अंधे होकर या लुड़कती - पुढ़कती बुद्धि के निर्णयों द्वारा लंगड़े बने हुए कर्मो को , या फिर अधीर मानव- इच्छा की उत्सुकता पूर्ण घबराहट के साथ दौड़ - धूप करके कर्म करने से नहीं होता ।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१४, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

इस ज्ञान की धधकती हुई प्रबलता और पवित्रता में उसके कर्म अग्नि में ईधन की तरह जलकर भस्म हो जाते हैं और इनका उसे मन पर कोई लेप या दाग नहीं लगता , वह स्थिर , शांत , अचल , निर्मल , शुभ और पवित्र बना रहता है। कर्तृव्य - अभिमान से शून्य इस मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर , समस्त कर्मो को करना ही दिव्य कर्मी का प्रथम लक्षण है। दूसरा लक्षण है कामना से मुक्ति ; क्योंकि जहां कर्ता का व्यक्तिगत अहंकार नहीं होता वहां कामना का रहना असम्भव हो जाता है , वहां कामना निरहार हो जाती है , निराश्रय हो जाने के कारण अवसन्न होकर क्षीण और नष्ट हो जती है। बाह्मतः मुक्त पुरूष भी दूसरे लोगों की तरह ही समस्त कर्मो को करता हुआ दिखायी देता है शायद वह कर्मो को बड़े पैमाने पर और अधिक शक्तिशाली संकल्प और वेगवती शक्ति के साथ करता है , क्योंकि उसकी सक्रिय प्रकृति में भगवान् के संकल्प का बल काम करता है ; परंतु उसके समस्त उपक्रमों और उद्योगों में कामना के हीनतर भाव और निम्नतर इच्छा का अभाव होता है , उनको अपने कार्मो के फल के लिये आसक्ति नहीं हेाती , और जहां फल के लिये कर्म नहीं किया जाता है बल्कि सब कर्मों के स्वामी का नैव्र्यक्तिक यंत्र बनकर ही सारा कर्म किया जाता है।
वहां कामना - वासना के लिये कोई स्थान ही नही होता - वहां मालिक के काम को सफलतापूर्वक करने की कोई इच्छा भी नहीं होती , क्योंकि फल तो भगवान् का है उन्ही के द्वारा विहित है , किसी व्यक्तिगत इच्छा या प्रयत्न के द्वारा नहीं , वहां यह इच्छा भी नहीं होती कि मालिक के काम को गौरव के साथ करूं या इस प्रकार करूं जिससे मालिक संतुष्ट हों , क्योंकि यथार्थ में कर्मी तो स्वयं भगवान् हैं , सारी महिमा उनकी शक्ति के उस रूप - विशेष की जिसके जिम्मे प्रकृति में उस कर्म का भर सौंपा गया है , न कि किसी परिच्छिन्न मानव - व्यक्तित्व की। मुक्त पुरूष का अंत:करण और अंतरात्मा कुछ भी नहीं करता , यद्यपि वह अपनी प्रकृति के अंदर से कर्म में नियुक्त तो होता है , पर कर्म करती है वह प्रकृति ,वह कन्नीं शक्ति, वह चिन्मयी भगवती जो अंतर्यामी भगवान् के द्वारा नियंत्रित होती है। इसका यह मबलब नही कि कर्म पूर्ण कौशल के साथ , सफलता के साथ , उपयुक्त साधनों का ठीक - ठीक उपयोग करके न किया जाये। बल्कि , योगस्थ होकर शांति के साथ कर्म करने से कुशल कर्म करना जितना अधिक सुलभ होता है उतना आशा और भय से अंधे होकर या लुड़कती - पुढ़कती बुद्धि के निर्णयों द्वारा लंगड़े बने हुए कर्मो को , या फिर अधीर मानव- इच्छा की उत्सुकता पूर्ण घबराहट के साथ दौड़ - धूप करके कर्म करने से नहीं होता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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