"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 278" के अवतरणों में अंतर

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गीता इस प्रसंग में मृत्युकालीन मनःस्थिति और विचार का बड़ा महत्व बतलाती है । इस महत्व को समझना हमारे लिये बहुत कठिन हो सकता है यदि हम उस चीज को न जानते हों जिसे चेतना की स्वतःसिद्ध आत्मसर्जनात्मक शक्ति कहा जा सकता है । हमारा विचार, हमारी आंतरिक दृष्टि, हमारी श्रद्धा जिस किसी बात पर पूर्ण सुस्थिर होकर गड़ जाती है, उसीमें हमारी आंतरिक सत्ता परिवर्तित होने लगती है। यह प्रवृत्ति उस समय एक निर्णायक शक्ति बन जाती है जब हम उन उच्चतर आध्यात्मिक और स्वयं - विकसित अनुभवों को प्राप्त होते हैं जो बाह्म पदार्थो पर उतने अवलंबित नहीं होते जितनी कि बाह्म प्रकृति से बंधे होने के कारण हमारी सामान्य मनोगति हुआ करती है। वहां हम स्पष्ट देख सकते हैं कि हम जिस किसी वस्तु पर अपने मन को स्थिर कर लेते हैं और जिसकी निरंतर अभीप्सा करते हैं वही होते जाते हैं। इसलिये वहां अपने विचार का थोड़ी देर के लिये भी छूट जाना, स्मरण में जरा से भी व्यभिचार का आ जाना इस परिवर्तन - क्रम से पीछे हटना है या इस उन्नति - क्रम से नीचे गिरकर उसी जगह आ जाना जहां हम पहले थे , यह बात कम -से - कम तब तक ऐसे ही चलती है जब तक हम अपने नवीन भाव, नवीन आधार - निर्माण को वास्तविक रूप और अपरिवर्तनीय ढंग से स्थापित न कर चुके हों।<br />
 
गीता इस प्रसंग में मृत्युकालीन मनःस्थिति और विचार का बड़ा महत्व बतलाती है । इस महत्व को समझना हमारे लिये बहुत कठिन हो सकता है यदि हम उस चीज को न जानते हों जिसे चेतना की स्वतःसिद्ध आत्मसर्जनात्मक शक्ति कहा जा सकता है । हमारा विचार, हमारी आंतरिक दृष्टि, हमारी श्रद्धा जिस किसी बात पर पूर्ण सुस्थिर होकर गड़ जाती है, उसीमें हमारी आंतरिक सत्ता परिवर्तित होने लगती है। यह प्रवृत्ति उस समय एक निर्णायक शक्ति बन जाती है जब हम उन उच्चतर आध्यात्मिक और स्वयं - विकसित अनुभवों को प्राप्त होते हैं जो बाह्म पदार्थो पर उतने अवलंबित नहीं होते जितनी कि बाह्म प्रकृति से बंधे होने के कारण हमारी सामान्य मनोगति हुआ करती है। वहां हम स्पष्ट देख सकते हैं कि हम जिस किसी वस्तु पर अपने मन को स्थिर कर लेते हैं और जिसकी निरंतर अभीप्सा करते हैं वही होते जाते हैं। इसलिये वहां अपने विचार का थोड़ी देर के लिये भी छूट जाना, स्मरण में जरा से भी व्यभिचार का आ जाना इस परिवर्तन - क्रम से पीछे हटना है या इस उन्नति - क्रम से नीचे गिरकर उसी जगह आ जाना जहां हम पहले थे , यह बात कम -से - कम तब तक ऐसे ही चलती है जब तक हम अपने नवीन भाव, नवीन आधार - निर्माण को वास्तविक रूप और अपरिवर्तनीय ढंग से स्थापित न कर चुके हों।<br />
जब यह हो जाता है , जब हम उस चीज को अपने सतत सामान्य अनुभव की - सी चीज बना लेते हैं तब उसी स्मृति स्वतःसिद्ध रूप से रहा करती है , क्योंकि वह हमारी चेतना का ही स्वाभाविक रूप होती है। इसे , मत्र्य जगत् से प्रयाण करने के संधिक्षण में, तबतक हमारी चेतना जो कुछ बन चुकी है उसका महत्व स्पष्अ हो जाता है। पर यह मरण - शय्या पर किसी तरह भगवान् का वैसा नाम ले लेना नहीं है जिसका हमारी संपूर्ण जीवनधारा और हमारी पूर्वतन मनःस्थिति से कोइ मेल न हो या जिसकी इनके द्वारा पहले से पूरी तैयारी न हुई हो। ऐसा नाम लेने में वह उद्धारक शक्ति नहीं हो सकती । यहां गीता जो बात बतला रही है वह वह चीज नहीं है जिसे सामान्य लौकिक धर्म मुक्ति का सहज मार्ग समझकर करते हैं ; सारा जीवन अपवित्रता में बीता हो और फिर भी पादरी के द्वारा अंत में सर्वप्रायश्चित करा लेने से ही ईसाई का मरण - काल में पावन हो जाना अथवा पवित्र काशीधाम में मरे या पतितपावनी गंगा के तट पर मर जाने से ही मुक्ति का मिल जाना इत्यादि जो बेसिर - पैर की बातें हैं उनसे गीता की इस बात का कोइ मेल नहीं है जिस दिव्य भाव पर मन को प्रयाणकाल में अचल रूप से स्थिर करना, होता है, वह तो वही भाव हो सकता है जिसकी ओर जीव अपने सांसारिक जीवन में प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहा हो। ‘‘ इसलिये ” भगवान् कहते हैं कि , ‘‘ सदा ही मेरा स्मरण करते रहो और युद्ध करो ; यदि तुम्हारे मन ओर बुद्धि सदा ही मुझपर स्थिर और अर्पित , रहैंगे तो तुम निश्चय ही मेरे पास चले आओगे।
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जब यह हो जाता है , जब हम उस चीज को अपने सतत सामान्य अनुभव की - सी चीज बना लेते हैं तब उसी स्मृति स्वतःसिद्ध रूप से रहा करती है , क्योंकि वह हमारी चेतना का ही स्वाभाविक रूप होती है। इसे , मत्र्य जगत् से प्रयाण करने के संधिक्षण में, तबतक हमारी चेतना जो कुछ बन चुकी है उसका महत्व स्पष्अ हो जाता है। पर यह मरण - शय्या पर किसी तरह भगवान् का वैसा नाम ले लेना नहीं है जिसका हमारी संपूर्ण जीवनधारा और हमारी पूर्वतन मनःस्थिति से कोइ मेल न हो या जिसकी इनके द्वारा पहले से पूरी तैयारी न हुई हो। ऐसा नाम लेने में वह उद्धारक शक्ति नहीं हो सकती । यहां गीता जो बात बतला रही है वह वह चीज नहीं है जिसे सामान्य लौकिक धर्म मुक्ति का सहज मार्ग समझकर करते हैं ; सारा जीवन अपवित्रता में बीता हो और फिर भी पादरी के द्वारा अंत में सर्वप्रायश्चित करा लेने से ही ईसाई का मरण - काल में पावन हो जाना अथवा पवित्र काशीधाम में मरे या पतितपावनी गंगा के तट पर मर जाने से ही मुक्ति का मिल जाना इत्यादि जो बेसिर - पैर की बातें हैं उनसे गीता की इस बात का कोइ मेल नहीं है जिस दिव्य भाव पर मन को प्रयाणकाल में अचल रूप से स्थिर करना, होता है, वह तो वही भाव हो सकता है जिसकी ओर जीव अपने सांसारिक जीवन में प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहा हो। ‘‘ इसलिये ” भगवान् कहते हैं कि , ‘‘ सदा ही मेरा स्मरण करते रहो और युद्ध करो ; यदि तुम्हारे मन ओर बुद्धि सदा ही मुझपर स्थिर और अर्पित , रहैंगे तो तुम निश्चय ही मेरे पास चले आओगे।
  
 
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१२:०६, २१ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

गीता इस प्रसंग में मृत्युकालीन मनःस्थिति और विचार का बड़ा महत्व बतलाती है । इस महत्व को समझना हमारे लिये बहुत कठिन हो सकता है यदि हम उस चीज को न जानते हों जिसे चेतना की स्वतःसिद्ध आत्मसर्जनात्मक शक्ति कहा जा सकता है । हमारा विचार, हमारी आंतरिक दृष्टि, हमारी श्रद्धा जिस किसी बात पर पूर्ण सुस्थिर होकर गड़ जाती है, उसीमें हमारी आंतरिक सत्ता परिवर्तित होने लगती है। यह प्रवृत्ति उस समय एक निर्णायक शक्ति बन जाती है जब हम उन उच्चतर आध्यात्मिक और स्वयं - विकसित अनुभवों को प्राप्त होते हैं जो बाह्म पदार्थो पर उतने अवलंबित नहीं होते जितनी कि बाह्म प्रकृति से बंधे होने के कारण हमारी सामान्य मनोगति हुआ करती है। वहां हम स्पष्ट देख सकते हैं कि हम जिस किसी वस्तु पर अपने मन को स्थिर कर लेते हैं और जिसकी निरंतर अभीप्सा करते हैं वही होते जाते हैं। इसलिये वहां अपने विचार का थोड़ी देर के लिये भी छूट जाना, स्मरण में जरा से भी व्यभिचार का आ जाना इस परिवर्तन - क्रम से पीछे हटना है या इस उन्नति - क्रम से नीचे गिरकर उसी जगह आ जाना जहां हम पहले थे , यह बात कम -से - कम तब तक ऐसे ही चलती है जब तक हम अपने नवीन भाव, नवीन आधार - निर्माण को वास्तविक रूप और अपरिवर्तनीय ढंग से स्थापित न कर चुके हों।
जब यह हो जाता है , जब हम उस चीज को अपने सतत सामान्य अनुभव की - सी चीज बना लेते हैं तब उसी स्मृति स्वतःसिद्ध रूप से रहा करती है , क्योंकि वह हमारी चेतना का ही स्वाभाविक रूप होती है। इसे , मत्र्य जगत् से प्रयाण करने के संधिक्षण में, तबतक हमारी चेतना जो कुछ बन चुकी है उसका महत्व स्पष्अ हो जाता है। पर यह मरण - शय्या पर किसी तरह भगवान् का वैसा नाम ले लेना नहीं है जिसका हमारी संपूर्ण जीवनधारा और हमारी पूर्वतन मनःस्थिति से कोइ मेल न हो या जिसकी इनके द्वारा पहले से पूरी तैयारी न हुई हो। ऐसा नाम लेने में वह उद्धारक शक्ति नहीं हो सकती । यहां गीता जो बात बतला रही है वह वह चीज नहीं है जिसे सामान्य लौकिक धर्म मुक्ति का सहज मार्ग समझकर करते हैं ; सारा जीवन अपवित्रता में बीता हो और फिर भी पादरी के द्वारा अंत में सर्वप्रायश्चित करा लेने से ही ईसाई का मरण - काल में पावन हो जाना अथवा पवित्र काशीधाम में मरे या पतितपावनी गंगा के तट पर मर जाने से ही मुक्ति का मिल जाना इत्यादि जो बेसिर - पैर की बातें हैं उनसे गीता की इस बात का कोइ मेल नहीं है जिस दिव्य भाव पर मन को प्रयाणकाल में अचल रूप से स्थिर करना, होता है, वह तो वही भाव हो सकता है जिसकी ओर जीव अपने सांसारिक जीवन में प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहा हो। ‘‘ इसलिये ” भगवान् कहते हैं कि , ‘‘ सदा ही मेरा स्मरण करते रहो और युद्ध करो ; यदि तुम्हारे मन ओर बुद्धि सदा ही मुझपर स्थिर और अर्पित , रहैंगे तो तुम निश्चय ही मेरे पास चले आओगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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