"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 170": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

तब हल क्या है? वह किसी प्रकार का कर्म है जिससे हम जीवन के अशुभ से छूट सकें, इस संशय , प्रमाद और शोक से , अने विशुद्ध अद्हेतु - प्रेरित कार्मो के भी अच्छे - बुरे , अशुद्ध और भरमाने वाले परिणाम से , इन सहस्त्रों प्रकार की बुराइयों ओर दुःखो से, मुक्त हो सकें ? उत्तर मिलता है कि कोई बाह्म प्रभेद करने की आवश्यकता नहीं; संसार में जो कर्म आवश्यक हैं उनसे बचने की आवश्यकता नहीं; हमारी मानव- कर्मण्यताओं की हदबन्दी की जरूरत नहीं , बल्कि सब कर्म किये जायें अंतरात्मा को भगवान् के साथ योग में स्थित करके , अकर्म मुक्ति का मार्ग नहीं है ; जिसकी उच्चतम बुद्धि की अंतर्दृष्टि खुल गयी है वह देख सकता है कि इस प्रकार का अकर्म स्वयं ही सतत होने वाला एक कर्म है , एक ऐसी अवस्था है जो प्रकृति और उसके गुणो की क्रियाओ के अधीन है। शारीरिक अकर्मण्यता की शरण लेने वाला मन अभी इसी भ्रम में पड़ा है कि वह स्वयं कर्मो का कर्ता है , प्रकृति नहीं ; उसने जढ़ता को मोक्ष समझा लिया होता , वह यह नहीं देख पाता कि जो ईट - पत्थर से भी अधिक जढ़ दिखाई देता है उसमें भी प्रकृति की क्रिया हो रही होती है , उस पर भी प्रकृति अपना अधिकार अक्षुण्ण राखती है। इसके विपरीत , कर्म के पूर्ण प्लावन में भी आत्मा अपने कर्मो से मुक्त है , वह कर्ता नहीं है जो कुछ किया जा रहा है उससे बद्ध नहीं है।
जो आत्त्मा की इस मुक्तावस्था में रहता है और प्रकृति के गुणों में बंधा नहीं है , वही कर्मो से मुक्त रहता है। गीता के इस वाक्य का कि ‘‘ जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है वही मनुष्यों में विवेकी और बुद्धिमान् है ,”स्पष्ट रूप से यही अभिप्राय है । गीता का यह वाक्य सांख्य ने पुरूष और प्रकृति के बीच जो भेद किया है उस पर प्रतिष्ठित है - वह भेद यह है कि पुरूष नित्य मुक्त , अकर्ता , चिरशांत , शुद्ध तथा कर्मा के अंदर भी अविचल है और प्रकृति चिरक्रियाशीला है जो जढ़ता और अकर्म की अवस्था में भी उतनी ही कर्मरत है जितनी कि दृश्य कर्मस्त्रोत के कोलाहल में । यही वह उच्चतम ज्ञान है जो बुद्धि के उच्चतम प्रयास से प्राप्त होता है , इसलिये जिसने इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वही यथार्थ में बुद्धिमान् है, वह भ्रांत मोहित बुद्धिवाला मनुष्य नहीं जो जीवन और कर्म को निम्नतार बुद्धि के बाह्म, अनिश्चित और अस्थायी लक्षणों से समझना चाहता है। इसलिये मुक्त पुरूष कर्म से भीत नहीं होता, वह संपूर्ण कर्मो का करने वाला विशाल विराट कर्मी होता है , वह औरों की तरह प्रकृति के वश में रहकर कर्म नहीं करता है , वह आत्मा की नीरव स्थिरता में प्रतिष्ठित होकर, भगवान् के साथ योगयुक्त होकर कर्म करता है। उसके कर्मो के स्वामी भगवान् होते हैं , वह उन कर्मो का निमित्तमात्र होता है जो उसकी प्रकृति अपने स्वामी को जानते हुए , उन्हींके वश में रहते हुए करती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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