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'''ईटं का काम''' ईटं के काम या उसकी चिनाई का अर्थ है ईटोंं को इस प्रकार चिनना कि उनसे बनी दीवार सुदृढ़ हो।


ईटं मिट्टी के बने उस लघु खंड को कहते हैं जिसे गीली अवस्था में उसकी लंबाई चौड़ाई को एक मनोनुकूल स्वरूप देकर बना दिया जाता है तथा आग में पकाकर इस प्रकार कड़ा कर दिया जाता है कि उसपर बाहरी वातावरण या जलवायु का कोई असर न हो सके, तथा ऐसी ईटोंं को दीवार या स्तंभनिर्माण के काम में लाए जाने के बाद वे उस भार को उचित रीति से वहन करने में सक्षम हों।
ईटोंं की जोड़ाई या चिनाई में ईटोंं के बीच गारे (गीली मिट्टी), चूने और बालू, चूने और सुर्खी, छाई और चूने अथवा सीमेंट और बालू का प्रयोग किया जाता है। परंतु दीवारों की दृढ़ता केवल गारे आदि पर निर्भर नहीं है। ईटेंं इस प्रकार रखी जाती हैं कि वे एक दूसरे के सहारे टिकी रहती हैं, परंतु आवश्यकता पड़ने पर दीवार को बिना विश्रृंखलित किए ही उसमें से दो चार ईटेंं खींचकर बाहर निकाल भी ली जा सकती हैं।


ईटोंं के कुछ विशेष प्रकार नीचे चित्रित हैं :
ईटं के काम में कई तरह की चाले (बॉण्ड) काम में लाई जाती हैं। उनमें से मुख्य रीतियाँ नीचे बताई गई हैं। स्मरण रखना चाहिए कि दीवार के अनुदिश रखी ईटं को वाराणसी की ओर पट्टा कहते हैं और अनुप्रस्थ रखी ईटं को तोड़ा या तुड़िया; ईटं की लंबाई के अनुदिश चीरकर दो आधी ईटोंं में से प्रत्येक को खंडा कहते हैं; चौड़ाई के अनुदिश तोड़कर दो आधी ईटोंं में से प्रत्येक को अद्धा कहते हैं। खंडे के आधे को रोड़ा कहते हैं।


अच्छी ईटोंं को आकार में ठीक और समान होना चाहिए। इनकी कोरें सीधी और कोण ठीक हों। (वाराणसी के मिस्त्री कहते हैं कि ईटं की नास कोर ठीक हो) और ये बीच में कच्ची अथवा अधपकी न रह गई हों। इनकी सतहें कठोर और चौरस हों। ऊपरी सतह अपेक्षाकृत अधिक कड़ी हो। कठोरता एवं ठोसपन की जाँच दो ईटोंं को हाथों में लेकर एक दूसरे को ठोंककर और ध्वनि सुनकर की जा सकती है। इस प्रकार ठोंकने पर यदि गिरी हुई या दबी आवाज निकले तो समझिए कि उसका भीतरी भाग अभी कड़ा नहीं हो पाया है और ईटं भली भाँति पकी नहीं।
'''इंग्शिल रीति'''-इस रीति में बाहर से देखने पर प्रत्येक रद्दे में या तो केवल पट्टे या केवल तोड़े दिखाई पड़ते हैं। पट्टे और तोड़ेवाले रद्दे एक के ऊपर एक आते रहते हैं
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'''द्विगुण फ़्लेमिश रीति'''-प्रत्येक रद्दे में पट्टे और तोड़े एक के बाद एक आते रहते हैं। दीवार के दोनों ओर ऐसा ही दिखाई पड़ता है।


अच्छी कड़ी ईटोंं में जल सोखने की कोई विशेष क्षमता नहीं होती। जो ईटं अपने भार के सातवें हिस्से से अधिक पानी न सोखे वह ठीक होती है। यदि इससे अधिक सोखे तो समझना चाहिए कि वह कुछ कच्ची है और जलवायु के प्रभाव को ठीक से सहन कर सकने की क्षमता उसमें नहीं आ पाई है।
'''एकल फ़्लेमिश रीति'''-मकान के बाहर से देखने पर प्रत्येक रद्दे में पट्टे और तोड़े एक के बाद एक आते रहते हैं, परंतु भीतर से देखने पर दीवार इंग्लिश रीति से जुड़ी जान पड़ती है।


1. कोना कटी ईटं; 2. इस प्रकार की आधी ईटं को मिस्त्री लोग खंडा कहते हैं और चौथाई ईटं को रोड़ा; 3. मेहराब या कुएँ में चिनाई की ईटं; 4-12 गोला, गलता, कॉर्निस, स्तंभ आदि में प्रयुक्त होनेवाली ईटेंं; 13-14. तिहाई या चौथाई ईटं; 15. कोर कटी ईटं।
'''केवल पट्टे'''-कुछ भीतें प्रत्येक रद्दे में केवल पट्टे रखकर बनाई जाती हैं। ऐसी भीत आधी ईटं मोटी होती है।
 
'''केवल तोड़े'''-प्रत्येक रद्दे में केवल तोड़े ही लगाए जा सकते हैं; मेहराबदार जुड़ाई, दीवार का पाद (नीचेवाला रद्दा), छज्जा, कार्निस आदि बनाने के काम में ऐसी जुड़ाई की जाती है।
 
'''बगीचे या हाते की भीत'''-ऐसी भीतों में तीन पट्टों की बगल में एक तोड़ा रहता है।
 
फ़्लेमिश जोड़ाई की अपेक्षा इंग्लिश जोड़ाई अधिक मजबूत होती है, परंतु फ़्लेमिश जोड़ाई से अधिक सपाट दीवार बनती है। उदाहरणत:, यदि 9 इंच लंबी हैं और 9 इंच मोटी दीवार बनानी है तो दो पट्टों के बीच में न्यूनाधिक गारा रखकर दीवार की मोटाई ठीक 9 इंच कर दी जा सकती है, परंतु ईटोंं की वास्तविक लंबाई न्यूनाधिक रहती है (यद्यपि कहने के लिए उनकी लंबाई 9 इंच होती है)। अब 9 इंच की दीवार जोड़ने पर जहाँ पट्टे रहेंगे वहाँ ईटोंं की छोटाई बड़ाई के अनुसार दीवार भीतर घुस जाएगी या बाहर निकल पड़ेगी। फ़्लेमिश जोड़ाई में पट्टे अधिक और तोड़े कम रहते हैं। इसी से फ़्लेमिश जोड़ाई अधिक सपाट होती है। हाते की चहारदीवारी के लिए भी इसी कारण तीन रद्दे पट्टों के और तब केवल एक रद्दा तोड़ों का रखा जाता है। इससे दीवार अवश्य कुछ कमजोर बनती है, परंतु ऐसी दीवार पर अधिक बोझ नहीं रहता कि विशेष मजबूती की आवश्यकता पड़े। दीवार पर पलस्तर करना हो तो भी दीवार यथासंभव सपाट ही बननी चाहिए, अन्यथा अधिक मसाला खर्च होता है।
 
ईटं के काम में सुव्यवस्थित एकरूपता केवल ईटं की नास कोर ठीक होने पर ही नहीं निर्भर रहती, बल्कि जोड़ की नाप पर भी निर्भर होती है, क्योंकि यदि प्रत्येक रद्दे के बीच के मसाले की उँचाई आपस में ठीक मेल नहीं खाएगी तो ईटेंं सच्ची रहकर ही क्या करेंगी? ईटं के काम में जोड़ की मोटाई नियंत्रित रखने के लिए चार रद्दे की मोटाई पहले से निर्धारित कर दी जाती है। उदाहरणत: यदि ईटं की उँचाई 2¾ इंच है और गारे के जोड़ की ऊँचाई को चौथाई इंच रखना है तो यह नियम बना दिया जा सकता है कि जोड़ाई के कार्य में प्रत्येक चार रद्दों की ऊँचाई ठीक 12 इंच रहे।
 
चित्र : ईटं की चिनाई
 
1-2. इंग्लिश रीति, सामने से और पीछे से, 3-4. द्विगुण फ़्लेमिश रीति, सामने से और पीछे से;
 
5-6. एकल फ़्लेमिंश रीति, सामने से और पीछे से; 7. हाते भीत; 8. केवल पट्टे।


अच्छी ईटं में छिद्र, गुठलियाँ या ढेले, कंकरीट अथवा चूने का असम्मिलित अंश इत्यादि नहीं होना चाहिए। चूने के टुकड़े विशेष रूप से अवांछनीय एवं हानिकर होते हैं, क्योंकि पानी पड़ते ही ये भुरभुरे होने लगते हैं और फूलकर ईटोंं में दरार अथवा उन्हें बिलकुल टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं।


ईटोंं को पाथने के लिए लंबाई चौड़ाई का एक स्थिर मानक होना चाहिए, जिससे विविध भट्ठों से आई ईटेंं एक दूसरे के साथ मेल खा सकें। प्रत्येक ईटं में लंबाई एवं चौड़ाई का अनुपात एक और दो का होना चाहिए।


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०७:४५, २९ जून २०१८ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
ईंट का काम
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 21
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्रीकृष्ण

ईटं का काम ईटं के काम या उसकी चिनाई का अर्थ है ईटोंं को इस प्रकार चिनना कि उनसे बनी दीवार सुदृढ़ हो।

ईटोंं की जोड़ाई या चिनाई में ईटोंं के बीच गारे (गीली मिट्टी), चूने और बालू, चूने और सुर्खी, छाई और चूने अथवा सीमेंट और बालू का प्रयोग किया जाता है। परंतु दीवारों की दृढ़ता केवल गारे आदि पर निर्भर नहीं है। ईटेंं इस प्रकार रखी जाती हैं कि वे एक दूसरे के सहारे टिकी रहती हैं, परंतु आवश्यकता पड़ने पर दीवार को बिना विश्रृंखलित किए ही उसमें से दो चार ईटेंं खींचकर बाहर निकाल भी ली जा सकती हैं।

ईटं के काम में कई तरह की चाले (बॉण्ड) काम में लाई जाती हैं। उनमें से मुख्य रीतियाँ नीचे बताई गई हैं। स्मरण रखना चाहिए कि दीवार के अनुदिश रखी ईटं को वाराणसी की ओर पट्टा कहते हैं और अनुप्रस्थ रखी ईटं को तोड़ा या तुड़िया; ईटं की लंबाई के अनुदिश चीरकर दो आधी ईटोंं में से प्रत्येक को खंडा कहते हैं; चौड़ाई के अनुदिश तोड़कर दो आधी ईटोंं में से प्रत्येक को अद्धा कहते हैं। खंडे के आधे को रोड़ा कहते हैं।

इंग्शिल रीति-इस रीति में बाहर से देखने पर प्रत्येक रद्दे में या तो केवल पट्टे या केवल तोड़े दिखाई पड़ते हैं। पट्टे और तोड़ेवाले रद्दे एक के ऊपर एक आते रहते हैं

द्विगुण फ़्लेमिश रीति-प्रत्येक रद्दे में पट्टे और तोड़े एक के बाद एक आते रहते हैं। दीवार के दोनों ओर ऐसा ही दिखाई पड़ता है।

एकल फ़्लेमिश रीति-मकान के बाहर से देखने पर प्रत्येक रद्दे में पट्टे और तोड़े एक के बाद एक आते रहते हैं, परंतु भीतर से देखने पर दीवार इंग्लिश रीति से जुड़ी जान पड़ती है।

केवल पट्टे-कुछ भीतें प्रत्येक रद्दे में केवल पट्टे रखकर बनाई जाती हैं। ऐसी भीत आधी ईटं मोटी होती है।

केवल तोड़े-प्रत्येक रद्दे में केवल तोड़े ही लगाए जा सकते हैं; मेहराबदार जुड़ाई, दीवार का पाद (नीचेवाला रद्दा), छज्जा, कार्निस आदि बनाने के काम में ऐसी जुड़ाई की जाती है।

बगीचे या हाते की भीत-ऐसी भीतों में तीन पट्टों की बगल में एक तोड़ा रहता है।

फ़्लेमिश जोड़ाई की अपेक्षा इंग्लिश जोड़ाई अधिक मजबूत होती है, परंतु फ़्लेमिश जोड़ाई से अधिक सपाट दीवार बनती है। उदाहरणत:, यदि 9 इंच लंबी हैं और 9 इंच मोटी दीवार बनानी है तो दो पट्टों के बीच में न्यूनाधिक गारा रखकर दीवार की मोटाई ठीक 9 इंच कर दी जा सकती है, परंतु ईटोंं की वास्तविक लंबाई न्यूनाधिक रहती है (यद्यपि कहने के लिए उनकी लंबाई 9 इंच होती है)। अब 9 इंच की दीवार जोड़ने पर जहाँ पट्टे रहेंगे वहाँ ईटोंं की छोटाई बड़ाई के अनुसार दीवार भीतर घुस जाएगी या बाहर निकल पड़ेगी। फ़्लेमिश जोड़ाई में पट्टे अधिक और तोड़े कम रहते हैं। इसी से फ़्लेमिश जोड़ाई अधिक सपाट होती है। हाते की चहारदीवारी के लिए भी इसी कारण तीन रद्दे पट्टों के और तब केवल एक रद्दा तोड़ों का रखा जाता है। इससे दीवार अवश्य कुछ कमजोर बनती है, परंतु ऐसी दीवार पर अधिक बोझ नहीं रहता कि विशेष मजबूती की आवश्यकता पड़े। दीवार पर पलस्तर करना हो तो भी दीवार यथासंभव सपाट ही बननी चाहिए, अन्यथा अधिक मसाला खर्च होता है।

ईटं के काम में सुव्यवस्थित एकरूपता केवल ईटं की नास कोर ठीक होने पर ही नहीं निर्भर रहती, बल्कि जोड़ की नाप पर भी निर्भर होती है, क्योंकि यदि प्रत्येक रद्दे के बीच के मसाले की उँचाई आपस में ठीक मेल नहीं खाएगी तो ईटेंं सच्ची रहकर ही क्या करेंगी? ईटं के काम में जोड़ की मोटाई नियंत्रित रखने के लिए चार रद्दे की मोटाई पहले से निर्धारित कर दी जाती है। उदाहरणत: यदि ईटं की उँचाई 2¾ इंच है और गारे के जोड़ की ऊँचाई को चौथाई इंच रखना है तो यह नियम बना दिया जा सकता है कि जोड़ाई के कार्य में प्रत्येक चार रद्दों की ऊँचाई ठीक 12 इंच रहे।

चित्र : ईटं की चिनाई

1-2. इंग्लिश रीति, सामने से और पीछे से, 3-4. द्विगुण फ़्लेमिश रीति, सामने से और पीछे से;

5-6. एकल फ़्लेमिंश रीति, सामने से और पीछे से; 7. हाते भीत; 8. केवल पट्टे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ