"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 95-115": अवतरणों में अंतर
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०५:५२, २८ जून २०१५ का अवतरण
प्रथम अध्याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)
सका ( इन्हीं की कृपा से युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेव की उत्पत्ति हुई। पति प्रिया कुन्ती ने पति के सबसे धर्म-रहस्य की बातें सुनकर पुत्र पाने की इच्छा से मन्त्र जप पूर्वक स्तुति द्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देवता का आवाहन किया। कुन्ती के उपदेश देने पर माद्री भी उस मन्त्र विद्या को जान गयी और उसने संतान के लिये दोनों अश्विनी कुमारों का आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओं से पाण्डवों की उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डव अपनी दोनों माताओं द्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनों में और महात्माओं के परम पुण्य आश्रमों मे ही तपस्वी लोगों के साथ दिनो दिन बढ़ने लगे। (पाण्डु की मृत्यु होने के पश्चात्) बड़े-बड़े ऋषि मुनि स्वयं ही पाण्डवों को लेकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रों के पास आये। उस समय पाण्डव नन्हे नन्हे शिशु के रूप में बड़े ही सुन्दर लगते थे। वे सिर पर जटा धारण किये ब्रह्मचारी के वेश में थे। ऋषियों द्वारा वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रों से कहा- ‘ये तुम्हारे पुत्र, भाई, शिष्य और सुहृद् हैं। ये सभी महाराज पाण्डु के ही पुत्र हैं। इतना कहकर वे मुनि वहाँ से अन्तर्धान हो गये। ऋषियों द्वारा लाये हुए उन पाण्डवों को देखकर सभी कौरव और नगर निवासी, शिष्ट तथा वर्णाश्रमी हर्ष से भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे। कोई कहते, ’ये पाण्डु के पुत्र नहीं हैं।‘ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्हीं के हैं।‘ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्डु को मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं? फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्वागत कते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है कि आज हम महाराज पाण्डु की संतान को अपनी आँखों से देख रहे हैं।‘ फिर तो सब ओर से स्वागत बोलने वालों की ही बातें सुनायी देने लगीं। दर्शको का वह तुमुल शब्द बंद होने पर सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करती हुई अद्दश्य भूतों-देवताओं की यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी-‘ये पाण्डव ही हैं’। जिस समय पाण्डवों ने नगर में प्रवेश किया, उसीसमय फूलों क वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख और दुन्दुभियों के मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एक अद्भत चमत्कारी सी बात र्हु। सभी नागरिक पाण्डवों के प्रेम से आनन्द में भरकर ऊँचे स्वर से अभिनन्दन ध्वनि करने लगे। उनका वह महान् शब्द स्वर्गलोक तक गूँज उठा जो पाण्डवों की कीर्ति बढ़ाने वाला था। वे सम्पूर्ण वेद् एवं विविध शास्त्रों का अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्हें किसी से भय नहीं था। राष्ट्र की सम्पूर्ण प्रजा ब के शौचाचार, भीमसेन की धृति, अर्जुन के विक्रम तथा नकूल सहदेव की गुरू शुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनय से बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोग पाण्डवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे[१]। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् राजाओं के समुदाय में अर्जुन ने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके स्वयं ही पति चुनने वाली द्रुपदकन्या कृष्णा को प्राप्त किया। तभी से वे इस लोक में सम्पूर्ण धनुर्धारियों के पूजनीय (आदरणीय) हो गये; और समरांगण में प्रचण्ड मार्तण्ड की भाँति प्रतापी अर्जुन की ओर किसी के लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया। उन्होंने पृथक्-पृथक् तथा महान् संघ बनाकर आये हुए सब राजाओं को जीतकर महाराज युधिष्ठिर के राज सूय नामक सहायज्ञ को सम्पन्न कराया। भगवान् श्रीकृष्ण की सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुन की शक्ति से बल के घमण्ड में चूर रहने वाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपाल को मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिर ने महायज्ञ राजसूय का सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम[२] गुणों से सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्त दक्षिणा का वितरण किया गया था। उस समय इधर उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियों के यहाँ से मणि सुवर्ण रत्न गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृग के बालों से बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहार की बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधन के हाथ में दी जातीं-उसी के देख-रेख में रखी जाती थीं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.शास्त्रोक्त आचार का परित्यागन करना सदाचारी सत्पुरूषों का संग करना और सदाचार में दृढ़ता से स्थित रहना-इसको शौच कहते है। अपनी इच्छा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थो की प्राप्ति होने पर चित्त मे, विकार न होना की ‘धृति’ है। सबसे बढ़कर सामर्थ्य का होना ही ‘विक्रम है। सद्वृत्त की अनुवृत्ति ही ‘शुश्रूषा’ है। (सदाचारपरायण गुरूजनों का अनुसरण गुरू शुश्रूषा है।) किसी के द्वारा अपराध बन जाने पर भी उसके प्रति अपने चित्त में क्रोध आदि विकारों का न होना ही ‘क्षमाशीलता’ है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत रहना ही ‘विनय’ है। बलवान् शत्रु को भी पराजित कर देने का अध्यवसाय ‘शौर्य’ है। इनके संग्राहक श्लोक इस प्रकार है- आचारापरिहारश्व संसर्गश्वाप्यनिन्दितैः। आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यधीयते।। इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिर्धृतिः। सर्वातिशयसामथ्र्य विक्रमं परिचक्षते।। वृत्तानुवृत्तिः शुश्रूषा क्षान्तिरागस्य विक्रिया। जितेन्द्रियत्वं विनयोऽथवानुद्धतशीलता।। शौर्यमध्यमवसायः स्याद् बलिनोऽपि पराभवे।।
- ↑ 1. आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विक्, सदस्य, यजमान, यजमानपली, धन सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि-विधान का सम्यक् पालन एवं सद् बुद्धि आदि यश की उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं।
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