"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 56 श्लोक 34-50": अवतरणों में अंतर

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१४:०७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

छ्प्पनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : छ्प्पनवाँ अध्याय: श्लोक 48-61 का हिन्दी अनुवाद

वक्ताओं में श्रेष्ठ राजसिंह! तुम्हें सेवको के साथ अधिक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये; इसमें जो दोष हैं, वह मुझसे सुना। राजा से जीविका चलाने वाले सेवक अधिक मुँह लगे हो जाने पर मालिक का अपमान कर बैठते है। वे अपनी मर्यादा में स्थिर नहीं रहते और स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन करने लगते है। वे जब किसी कार्य के लिये भेजे जाते है तो उसकी सिद्धि में संदेह उत्पन्न कर देते है। राजा की गोपनीय त्रुटियों को भी सबके सामने ला देते है। जो वस्तु नहीं माँगनी चाहिये उसे भी माँग बैठते है, तथा राजा के लिये रखे हुए भोज्य पदार्थों को स्वयं खा लेते है। राज्य के अधिपति भूपाल को कोसते है, उनके प्रति क्रोध में तमतमा उठते है; घूस लेकर और धोखा देकर राजा के कार्यों में विघन डालते है। वे जाली आज्ञापत्र जारी करके राजा के राज्य को जर्जर कर देते है। रनवास के रक्षकों से मिल जाते है अथवा उनके समान ही वेशभूषा धारण करके वहाँ घूमते फिरते है। राजा के पास ही मुँह बाकर जँभाई लेते और थूकते है, नृपश्रेष्ठ! वे मुँह लगे नौकर लाज छोडकर मनमानी बातें बोलते है। नृपशिरोमणे! परिहासशील कोमल स्वभाव वाले राजा को पाकर सेवकगण उसकी अवहेलना करते हुए उसके घोडे, हाथी अथवा रथ को अपनी सवारी के काम में लाते है। *व्यसन अठारह प्रकार के बताये जाते है। इनमें दस तो कामज है, और आठ क्रोधज। शिकार, जूआ, दिन में सोना, परनिन्दा, स्त्रीसेवन, मद वाद्य, गीत, नृत्य और मदिरापान- ये दस कामज व्यसन बताये गये है। चुगली, साहस, द्रोह, ईष्‍या, असूया, अर्थदूषण, वाणी की कठोरता और दण्ड की कठोरता- ये आज क्रोधज व्यसन कहे गये है। आम दरबार में बैठकर दोस्तों की तरह बराबरी का बर्ताव करते हुए कहते है कि राजन्! आपसे इस काम का होना कठिन है, आपका यह बर्ताव बहुत बुरा है। इस बात से यदि राजा कुपित हुए तो वे उन्हें देखकर हँस देते है और उनके द्वारा सम्मानित होने पर भी वे धृष्ट सेवक प्रसन्न नहीं होते। इतना ही नहीं, वे सेवक परस्पर स्वार्थ-साधन के निमित्त राजसभा में ही राजा के साथ विवाद करने लगते है। राजकीय गुप्त बातों तथा राजा के दोषों को भी दूसरों पर प्रकट कर देते है। राजा के आदेश की अवहेलना करके खिलवाड करते हुए उसका पालन करते है। पुरूषसिंह! श्राजा पास ही खड़ा खडा सुनता रहता है निर्भय होकर उसके आभूषण पहनने, खाने, नहाने और चन्दन लगाने आदि का मजाक उडाया करते है। भारत! उनके अधिकार में जो काम सौपा जाता है, उसको वे बुरा बताते और छोड देते है। उन्हें जो वेतन दिया जाता है, उससे वे संतुष्ट नहीं होते है और राजकीय धन को हडपते रहते है। ।जैसे लोग डोरे में बँधी हुई चिडिया के साथ खेलते है, उसी प्रकार वे भी राजा के साथ खेलना चाहते है और साधारण लोगों से कहा करते है कि राजा तो हमारा गुलाम है। युधिष्ठिर! राजा जब परिहासशील और कोमल स्वभाव का हो जाता है, तब ये ऊपर बताये हुए तथा दूसरे दोष भी प्रकट होते है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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