"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 90 श्लोक 1-15": अवतरणों में अंतर
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११:४३, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण
नवतितमो (90) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- श्राद्ध में ब्राह्माणों की परीक्षा, पंक्तिदूषक और पंक्पिावन ब्राह्माणों का वर्णन, श्राद्ध में लाख मूर्ख ब्राह्माणों को भोजन कराने की अपेक्षा एक वेदवेत्ता को भाजन कराने की श्रेष्ठता का कथन ।
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! कैसे ब्राह्माण को श्राद्ध का दान (अर्थात निमंत्रण) देना चाहिये? कुरूश्रेष्ठ। आप इसका मेरे लिये स्पष्ट वर्णन करें । भीष्मजी ने कहा- राजन ! दान-धर्म के ज्ञाता क्षत्रियों को देव सम्बन्धी कर्म (यज्ञ-यज्ञादि) में ब्राह्माण की परीक्षा नहीं करनी चाहिये, किंतु पित्त कर्म (श्राद्ध) में उनकी परीक्षा न्यायसंगत मानी गयी है। देवता अपने दैव से ही इस जगत में ब्राह्माणों का पूजन (समादर) करते हैं; अतः देवताओं के उद्वेश्य से सभी ब्राह्माणों के पास जाकर उन्हें दान देना चाहिये। किंतु महाराज ! श्राद्ध के समय विद्वान पुरुष कुल, शील (उत्तम आचरण), अवस्था, रूप, विद्या और पूर्वजों के निवास स्थान आदि के द्वारा ब्राह्माण की अवश्य परीक्षा करें। ब्राह्माणों में कुछ तो पंक्तिदूषक होते हैं और कुछ पंक्तिपावन। राजन ! पहले पंक्तिदूषक ब्राह्माणों का वर्णन करूंगा, सुनो। जुआरी, गर्भ हत्यारा, राज्यक्षमा का रोगी, पशुपालन करने वाला, अपढ़, गांव भर हरकारा, सूदखोर, गवैया, सब तरह की चीज बेचने वाला, दूसरों का घर फूंकने वाला, विष देने वाला, माता द्वारा पति के जीते-जी दूसरे पति से उत्पन्न किये हुए पुत्र के घर भोजन करने वाला, सोमरस बेचने वाला, सामुद्रि विद्या (हस्तरेखा) से जीविका चलाने वाला, राजा का नौकर, तेल बेचने वाला, झूठी गवाही देने वाला, पिता से झगड़ा करने वाला, जिसके घर में जार पुरुष का प्रवेश वह कलंकित, चोर, शिल्पजीवी, बहुरूपिया, चुगलखोर, मित्रद्राही, पर स्त्री लम्पट, व्रत रहित, मनुष्यों का अध्यापक, हथियार बनाकर जीविका चलाने वाला, कुत्ते साथ लेकर घूमने वाला, जिसे कुत्ते ने काटा वह, जिसके छोटे भाई का विवाह हो गया हो ऐसा अविवाहित बड़ा भाई, चर्म रोगी, गुरु पत्नीगामी, नट का काम करने वाला, देव मन्दिर में पूजा से जीविका चलाने वाला और नक्षत्रों का फल बताकर जीने वाला- ये सभी ब्राह्माण पंक्ति से बाहर रखने योग्य हैं। युधिष्ठिर। ऐसे पंक्तिदूषक ब्राह्माणों का खाया हुआ हविष्य राक्षसों को मिलता है। ऐसा ब्रह्मवादी पुरुषों का कथन है। जो ब्राह्माण श्राद्ध का भोजन करके फिर उस दिन वेद पढ़ता है तथा जो वृषली स्त्री से समागम करता है, उसके पितर उस दिन से लेकर एक मास तक उसी की विष्ठा में शयन करते हैं। सोमरस बचने वाले को जो श्राद्ध का अन्न दिया जाता है, वह पितरों के लिये विष्ठा के तुल्य है। श्राद्ध में वैद्य को जिमाया हुआ अन्न पीब और रक्त के समान पितरों को अग्राह्य हो जाता है। देव मन्दिर में पूजा करके जीविका चलाने वाले को दिया हुआ श्राद्ध का दान नष्ट हो जाता है - उसका कोई फल नहीं करता। सूदखोर को दिया हुआ अन्न अस्थिर होता है। वाणिज्यवृति करने वाले को श्राद्ध में दिये हुए अन्न का दान न इहलोक लाभदायक होता है और न परलोक में। एक पति को छोड़कर दूसरा पति करने वाली स्त्री के पुत्र को दिया हुआ श्राद्ध में अन्न का दान राख में डाले हुए हविष्य के समान व्यर्थ हो जाता है। जो लोकधर्म रहित और चरित्रहीन द्विज को हव्य-कव्य का दान करते हैं, उनका वह दान परलोक में नष्ट हो जाता है।
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