"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर

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१२:०२, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

तृतीय (3) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिकापर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
राजा धृतराष्ट्र का गान्धारी के साथ वन में जाने के लिये उद्योग एवं युधिष्ठिर से अनुमति देने के लिये अनुरोध तथा युधिष्ठिर और कुन्ती आदि का दुःखी होना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! राजा युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र में जो पारस्परिक प्रेम था, उसमें राज्य के लोगों ने कभी कोई अन्तर नहीं देखा। राजन् ! परंतु वे कुरूवंशी राजा धृतराष्ट्र जब अपने दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन का स्मरण करते थे, तब म नही मन भीमसेन का अनिष्ट चिन्तन किया करते थे। राजेन्द्र ! उसी प्रकार भीमसेन भी सदा ही राजा धृतराष्ट्र के प्रति अपने मन में दुर्भावना रखते थे । वे कभी उन्हें क्षमा नहीं कर पाते थे। भीमसेन गुप्त रीति से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम किया करते थे तथा अपने द्वारा नियुक्त किये हुए कृतज्ञ पुरूषों से उनकी आज्ञा भी भंग करा दिया करते थे। राजा धृतराष्ट्र की जो दुष्टतापूर्ण मन्त्रणाएँ होती थीं और तदनुसार ही जो उनके कई दुर्बर्ताव हुए थे, उन्हें सदा भीमसेन याद रखते थे । एक दिन अमर्ष में भरे हुए भीमसेन ने अपने मित्रों के बीच में बारंबार अपनी भुजाओं पर ताल ठोंक और धृतराष्ट्र एवं गान्धारी को सुनाते हुए रोषपूर्वक यह कठोर वचन कहा । वे अपने शत्रु दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन को याद करके यों कहने लगे ।‘मित्रों ! मेरी भुजाएँ परिघ के समान सुदृढ़ हैं । मैनें ही उस अंधे राजा के समस्त पुत्रों को, जो नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों द्वारा युद्ध करते थे, यमलोक का अतिथि बनाया है। ‘देखो, ये मेरे दोनों परिघ के समान सुदृढ़ एवं दुर्जय बाहुदण्ड; जिनके बीच में पकड़कर धृतराष्ट्र के बेटे पिस गये हैं।‘ये मेरी दोनों भुजाएँ चन्दन से चर्चित एवं चन्दन लगाने के ही योग्य है, जिनके द्वारा पुत्रों और बन्धु-बान्धवों सहित राजा दुर्योधन नष्ट कर दिया गया। ये तथा और भी नाना प्रकार की भीमसेन की कही हुई कठोर बातें जो हृदय में काँटों के समान कसक पैदा करने वाली थीं, राजा धृतराष्ट्र ने सुनीं । सुनकर उन्हें बड़ा खेद हुआ। समय के उलटफेर को समझने और समस्त धर्मों को जानने वाली बुद्धिमती गान्धारी देवी ने भी इन कठोर वचनों को सुना था। उस समय तक उन्हें राजा युधिष्ठिर के आश्रय में रहते हुए पंद्रह वर्ष व्यतीत हो चुके थे । पंद्रहवाँ वर्ष बीतने पर भीमसेन के वाग्बाणों से पीड़ित हुए राजा धृतराष्ट्र को खेद एवं वैराग्य हुआ। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर को इस बात की जानकारी नहीं थी। अर्जुन, कुन्ती तथा यशस्विनी द्रौपदी को भी इसका पता नहीं था। धर्म के ज्ञाता माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव सदा राजा धृतराष्ट्र के मनोऽनुकूल ही बर्ताव करते थे । वे उनक मन रखते हुए कभी कोई अप्रिय बात नहीं कहते थे। तदनन्तर धृतराष्ट्र ने अपने मित्रों को बुलवाया और नेत्रों में आँसू भरकर अत्यन्त गदगद वाणी में इस प्रकार कहा। धृतराष्ट्र बोले - मित्रों ! आप लोगों को यह मालूम ही है कि कौरववंश का विनाश किस प्रकार हुआ है । समस्त कौरव इस बात को जानते हैं कि मेरे ही अपराध से सारा अनर्थ हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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