"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 1": अवतरणों में अंतर

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०६:५४, २० जुलाई २०१५ का अवतरण

षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: भाग-1 का हिन्दी अनुवाद
छत्र और उपनह की उत्‍पत्ति एवं दान की प्रशंसा

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। जब सूर्यदेव इस प्रकार याचना कर रहे थे, उस समय महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि ने कौन-सा कार्य किया? भीष्मजी ने कहा- कुरूनन्दन। सूर्यदेव के इस तरह प्रार्थना करने पर भी अग्नि के समान तेजस्वी जमदग्नि मुनि का क्रोध शान्त नहीं हुआ । प्रजानाथ। तब विप्ररूपधारी सूर्य ने हाथ जोड़ प्रमाणा करके मधुर वाणी द्वारा यों कहा- विप्रर्षे। आपका लक्ष्य तो चल है, सूर्य भी सदा चलते रहते हैं। अतः निरन्तर यात्रा करते हुए सूर्यरूपी चंचल लक्ष्य का आप किस प्रकार भेदन करेंगे? जमदग्नि बोले- हमारा लक्ष्य चंचल हो या स्थिर, हम ज्ञानदष्टि से पहचान गये हैं कि तुम्हीं सूर्य हो। अतः आज दण्ड देकर तुम्हें अवश्‍य ही विनयुक्त बनायेंगे । दिवाकर् । तुम दोपहर के समय आधे निमेष के लिये ठहर जाते हो। सर्यू। उसी समय तुम्हें स्थिर पाकर हम अपने बाणों द्वारा तुम्हारे शरीर का भेदन कर डालेंगे। इस विषय में मुझे कोई (अन्यथा) विचार नहीं करना है।।सूर्य बोले- धमुर्धरों में श्रेष्ठ विप्रर्षे । निस्संदेह आप मेरे शरीर का भेजन कर सकते हैं। भगवन। यद्यपि मैं आपका अपराधी हूं तो भी आप मुझे आना शरणागत समझिये । भीष्मजी कहते हैं- राजन। सूर्यदेव की यह बात सुनकर भगवान जमदग्नि हंस पड़े और उनसे बोले- ‘सूर्यदेव। अब तुम्हें भय नहीं मानना चाहिये; क्योंकि तुम मेरे शरणागत हो गये हो । ‘ब्राम्हणों में जो सरलता है, पृथ्वी में जो स्थिरत है, सोम का जो सौम्यभाव, सागर की जो गम्भीरता, अग्नि की जो दीप्ति, मेरू की जो चमक और सूर्य का जो प्रताप है- इन सबका वह पुरूष उल्लंघन कर जाता है, इन सबकी मार्यादा का नाश करने वाला समझा जाता है जो शरणागत का वध करता है । जो शरणागत की हत्या करता है, उसे गुरूपत्नीगमन ब्रह्मत्या और मदिरापान का पाप लगता है’ । तात। इस समय तुम्हारे द्वारा जो यह अपराध हुआ है, उसका कोई समाधान -उपाय सोचो। जिससे तुम्हारी किरणों द्वारा तपा हुआ मार्ग सुगमता पूर्वक चलने योग्य हो सके’ । भीष्मजी कहते हैं- राजन्। इतना कहकर भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि मुनि चुप हो गये। तब भगवान सूर्य ने उन्हें शीघ्र ही छत्र और उपानह दोनों वस्तुऐं प्रदान कीं । सूर्यदेव ने कहा- महर्षे। यहा छत्र मेरी किरणों का निवारण करके मस्तक की रक्षा करेगा तथा चमड़े के बने ये एक जोड़े जूते हैं, जो पैरों को जलने से बचाने के लिये प्रस्तुत किये गये हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये । आज से जगत में इन दोनों वस्तुओं का प्रचार होगा और पुण्य के सभी अवसरों पर इनका दान उत्तम एवं अक्षय फल देने वाला होगा । भीष्मजी ने कहते है- भारत। छाता और जूता- इन दोनों वस्तुओं का प्राकट्य- छाता लगाने और जूता पहनने की प्रथा सूर्य ने ही जारी की है। इन वस्तुओं का दान तीनों लोकों में पवित्र बताया गया है । इसलिये तुम ब्राम्हणों को उत्तम छाते और जूते दिया करो। उनके दान से महान धर्म होगा। इस विषय में मुझे भी संदेह नहीं है । भरतश्रेष्ठ जो ब्राम्हण को सौ शलाकाओं से युक्त सुन्दर छाता दान करता है, वह परलोक में सुखी होता है।।भरतभूषण। वह देवताओं, ब्राम्हणों और अप्सराओं द्वारा सतत सम्मानित होता हुआ इन्द्रलोक में निवास करता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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