"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-66": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
== पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4>
<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-66 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-66 का हिन्दी अनुवाद</div>


है। समस्त प्राणों का परस्पर संयोग होने पर संसर्गवश जो ताप प्रकट होता है, उसी को अग्नि जानना चाहिये। वह अग्नि देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाती है। अपान और प्राण वायु के मध्यभाग में व्यान और उदान वायु स्थित है। समान वायु से युक्त हुई अग्नि सम्यक् रूप से अन्न का पाचन करती है। शरीर के मध्यभाग में नाभि है। नाभि के भीतर अग्नि प्रतिष्ठित है। अग्नि से प्राण जुडे़ हुए हैं और प्राणों में आत्मा स्थित है। नाभि के नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय है। शरीर के ठीक मध्यभाग में नाभि है और समस्त प्राण उसी का आश्रय लेकर स्थित हैं। समस्त प्राण आदि ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में विचरने वालजे हैं। दस प्राणों से तथा अग्नि से प्रेरित हो नाड़ियाँ अन्नरस का वहन करती हैं। यह योगियों का मार्ग है, जो पाँचों प्राणों में स्थित है। साधक को चाहिये कि श्रम को जीतकर आसन पर आसीन हो आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करे। मूर्धा में आत्मा को स्थापित करके दोनों भौंहों के बीच में मन का अवरोध करे। तत्पश्चात् प्राण को भली भाँति रोककर परमात्मा का चिन्तन करे। प्राण में अपान का और अपान कर्म में प्राणों का योग करे। फिर प्राण और अपान की गति को अवरूद्ध करके प्राणायाम में तत्पर हो जाय। इस प्रकार एकान्त प्रदेश में बैठकर मिताहारी मुनि अपने अन्तःकरण में पाँचों प्राणों का परस्पर योग करे और चुपचाप उच्छ्वासरहित हो बिना किसी थकावट के ध्यानमग्न रहे। योगी पुरूष बारंबार उठकर भी चलते, सोते या ठहरते हुए भी आलस्य छोड़कर योगाभ्यास में ही लगा रहे। इस प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लगा हुआ है, ऐसे योगाभ्यास परायण योगी का मन शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और मन के प्रसन्न होने पर परमात्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है। उस समय अविनाशी पुरूष परमात्मा धूमरहित प्रकाशित अग्नि, अंशुमाली सूर्य और आकाश में चमकने वाली बिजली के समान दिखायी देता है। उस अवस्था में मन के द्वारा ज्योतिर्मय परमेश्वर का दर्शन करके योगी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से युक्त हो देवताओं के लिये भी स्पृहणीय परमपद को प्राप्त कर लेता है। वरारोहे! विद्वानों ने दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न की प्राप्ति बतायी है। वे योग के निम्नांकित दस ही दोष बताते हैं। काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अधिक भोजन, वैचित्य (मानिसक विकलता), व्याधि, आलस्य और लोभ- ये ही उन दोषों के नाम हैं। इनमें लोभ दसवाँ दोष है। देवताओं द्वारा पैदा किये गये इन दस दोषों से योगियों को विघ्न होता है, अतः पहले इन दस दोषों को हटाकर मन को परमात्मा में लगावे। योग के निम्नांकित आठ गुण बताये जाते हैं, जिनसे युक्त दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। अणिमा, महिमा और गरिमा, लघिमा तथा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व, जिसमें इच्छाओं की पूर्ति होती है। योगियों में श्रेष्ठ पुरुष किसी तरह इन आठ गुणों को पाकर सम्पूर्ण जगत् पर शासन करने में समर्थ हो देवताओं से भी बढ़ जाते हैं।
है। समस्त प्राणों का परस्पर संयोग होने पर संसर्गवश जो ताप प्रकट होता है, उसी को अग्नि जानना चाहिये। वह अग्नि देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाती है। अपान और प्राण वायु के मध्यभाग में व्यान और उदान वायु स्थित है। समान वायु से युक्त हुई अग्नि सम्यक् रूप से अन्न का पाचन करती है। शरीर के मध्यभाग में नाभि है। नाभि के भीतर अग्नि प्रतिष्ठित है। अग्नि से प्राण जुडे़ हुए हैं और प्राणों में आत्मा स्थित है। नाभि के नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय है। शरीर के ठीक मध्यभाग में नाभि है और समस्त प्राण उसी का आश्रय लेकर स्थित हैं। समस्त प्राण आदि ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में विचरने वालजे हैं। दस प्राणों से तथा अग्नि से प्रेरित हो नाड़ियाँ अन्नरस का वहन करती हैं। यह योगियों का मार्ग है, जो पाँचों प्राणों में स्थित है। साधक को चाहिये कि श्रम को जीतकर आसन पर आसीन हो आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करे। मूर्धा में आत्मा को स्थापित करके दोनों भौंहों के बीच में मन का अवरोध करे। तत्पश्चात् प्राण को भली भाँति रोककर परमात्मा का चिन्तन करे। प्राण में अपान का और अपान कर्म में प्राणों का योग करे। फिर प्राण और अपान की गति को अवरूद्ध करके प्राणायाम में तत्पर हो जाय। इस प्रकार एकान्त प्रदेश में बैठकर मिताहारी मुनि अपने अन्तःकरण में पाँचों प्राणों का परस्पर योग करे और चुपचाप उच्छ्वासरहित हो बिना किसी थकावट के ध्यानमग्न रहे। योगी पुरूष बारंबार उठकर भी चलते, सोते या ठहरते हुए भी आलस्य छोड़कर योगाभ्यास में ही लगा रहे। इस प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लगा हुआ है, ऐसे योगाभ्यास परायण योगी का मन शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और मन के प्रसन्न होने पर परमात्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है। उस समय अविनाशी पुरूष परमात्मा धूमरहित प्रकाशित अग्नि, अंशुमाली सूर्य और आकाश में चमकने वाली बिजली के समान दिखायी देता है। उस अवस्था में मन के द्वारा ज्योतिर्मय परमेश्वर का दर्शन करके योगी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से युक्त हो देवताओं के लिये भी स्पृहणीय परमपद को प्राप्त कर लेता है। वरारोहे! विद्वानों ने दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न की प्राप्ति बतायी है। वे योग के निम्नांकित दस ही दोष बताते हैं। काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अधिक भोजन, वैचित्य (मानिसक विकलता), व्याधि, आलस्य और लोभ- ये ही उन दोषों के नाम हैं। इनमें लोभ दसवाँ दोष है। देवताओं द्वारा पैदा किये गये इन दस दोषों से योगियों को विघ्न होता है, अतः पहले इन दस दोषों को हटाकर मन को परमात्मा में लगावे। योग के निम्नांकित आठ गुण बताये जाते हैं, जिनसे युक्त दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। अणिमा, महिमा और गरिमा, लघिमा तथा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व, जिसमें इच्छाओं की पूर्ति होती है। योगियों में श्रेष्ठ पुरुष किसी तरह इन आठ गुणों को पाकर सम्पूर्ण जगत् पर शासन करने में समर्थ हो देवताओं से भी बढ़ जाते हैं।

०७:५३, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-66 का हिन्दी अनुवाद

है। समस्त प्राणों का परस्पर संयोग होने पर संसर्गवश जो ताप प्रकट होता है, उसी को अग्नि जानना चाहिये। वह अग्नि देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाती है। अपान और प्राण वायु के मध्यभाग में व्यान और उदान वायु स्थित है। समान वायु से युक्त हुई अग्नि सम्यक् रूप से अन्न का पाचन करती है। शरीर के मध्यभाग में नाभि है। नाभि के भीतर अग्नि प्रतिष्ठित है। अग्नि से प्राण जुडे़ हुए हैं और प्राणों में आत्मा स्थित है। नाभि के नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय है। शरीर के ठीक मध्यभाग में नाभि है और समस्त प्राण उसी का आश्रय लेकर स्थित हैं। समस्त प्राण आदि ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में विचरने वालजे हैं। दस प्राणों से तथा अग्नि से प्रेरित हो नाड़ियाँ अन्नरस का वहन करती हैं। यह योगियों का मार्ग है, जो पाँचों प्राणों में स्थित है। साधक को चाहिये कि श्रम को जीतकर आसन पर आसीन हो आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करे। मूर्धा में आत्मा को स्थापित करके दोनों भौंहों के बीच में मन का अवरोध करे। तत्पश्चात् प्राण को भली भाँति रोककर परमात्मा का चिन्तन करे। प्राण में अपान का और अपान कर्म में प्राणों का योग करे। फिर प्राण और अपान की गति को अवरूद्ध करके प्राणायाम में तत्पर हो जाय। इस प्रकार एकान्त प्रदेश में बैठकर मिताहारी मुनि अपने अन्तःकरण में पाँचों प्राणों का परस्पर योग करे और चुपचाप उच्छ्वासरहित हो बिना किसी थकावट के ध्यानमग्न रहे। योगी पुरूष बारंबार उठकर भी चलते, सोते या ठहरते हुए भी आलस्य छोड़कर योगाभ्यास में ही लगा रहे। इस प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लगा हुआ है, ऐसे योगाभ्यास परायण योगी का मन शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और मन के प्रसन्न होने पर परमात्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है। उस समय अविनाशी पुरूष परमात्मा धूमरहित प्रकाशित अग्नि, अंशुमाली सूर्य और आकाश में चमकने वाली बिजली के समान दिखायी देता है। उस अवस्था में मन के द्वारा ज्योतिर्मय परमेश्वर का दर्शन करके योगी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से युक्त हो देवताओं के लिये भी स्पृहणीय परमपद को प्राप्त कर लेता है। वरारोहे! विद्वानों ने दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न की प्राप्ति बतायी है। वे योग के निम्नांकित दस ही दोष बताते हैं। काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अधिक भोजन, वैचित्य (मानिसक विकलता), व्याधि, आलस्य और लोभ- ये ही उन दोषों के नाम हैं। इनमें लोभ दसवाँ दोष है। देवताओं द्वारा पैदा किये गये इन दस दोषों से योगियों को विघ्न होता है, अतः पहले इन दस दोषों को हटाकर मन को परमात्मा में लगावे। योग के निम्नांकित आठ गुण बताये जाते हैं, जिनसे युक्त दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। अणिमा, महिमा और गरिमा, लघिमा तथा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व, जिसमें इच्छाओं की पूर्ति होती है। योगियों में श्रेष्ठ पुरुष किसी तरह इन आठ गुणों को पाकर सम्पूर्ण जगत् पर शासन करने में समर्थ हो देवताओं से भी बढ़ जाते हैं।



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