"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-69": अवतरणों में अंतर

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<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4>
<h4 style="text-align:center;">पाशुपत योग का वर्णन तथा शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-69 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-69 का हिन्दी अनुवाद</div>



०७:००, २२ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

पाशुपत योग का वर्णन तथा शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-69 का हिन्दी अनुवाद

जो गोदुग्ध और माखन से मेरे शिवलिंग की पूजा करता है, उसे वही फल प्राप्त होता है जो कि अश्वमेध यज्ञ करने से मिलता है। जो प्रतिदिन घृतमण्ड से मेरे शिवलिंग का पूजन करता है, वह मनुष्य प्रतिदिन अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मण के समान पुण्यफल का भागी होता है। जो केवल जल से भी मेरे शिवलिंग को नहलाता है, वह भी पुण्य का भागी होता और अभीष्ट फल पा लेता है। जो शिवलिंग के निकट घृतमिश्रित गुग्गुल का उत्तम धूप निवेदन करता है, उसे गोसव नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो केवल गुग्गुल के पिण्ड से धूप देता है, उसे सुवर्णदान का फल मिलता है। जो नाना प्रकार के फूलों से मेरे लिंग की पूजा करता है, उसे सहस्त्र धेनुदान का फल प्राप्त होता है। जो देशान्तर में जाकर शिवलिंग की पूजा करता है, उससे बढ़कर समस्त मनुष्यों में मेरा प्रिय करने वाला दूसरा कोई नहीं है। इस प्रकार भाँति-भाँति के द्रव्यों द्वारा जो शिवलिंग की पूजा करता है, वह मनुष्यों में मेरे समान है। वह फिर इस संसार में जन्म नहीं लेता है। अतः भक्त पुरुष अर्चनाओं, नमस्कारों, उपहारों और स्तोत्रो द्वारा प्रतिदिन आलस्य छोड़कर शिवलिंगों के रूप में मेरी पूजा करे। पलाश और बेल के पत्ते, राजवृक्ष के फूलों की मालाएँ तथा आक के पवित्र फूल मुझे विशेष प्रिय हैं। देवि! मुझमें मन लगाये रहने वाले मेरे भक्तों का दिया हुआ फल, फूल, साग अथवा जल भी मुझे विशेष प्रिय लगता है। मेरे संतुष्ट हो जाने पर लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है, इसलिये भक्तजन सदा मेरी ही पूजा किया करते हैं। मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते। उनके सारे पाप दूर हो जाते हैं तथा मेरे भक्त तीनों लोकों में विशेषरूप से पूजनीय हैं। जो मनुष्य मुझसे या मेरे भक्तों से द्वेष करते हैं, वे सौ यज्ञों का अनुष्ठान कर लें तो भी घोर नरक में पड़ते हैं। देवि! इस प्रकार मैंने तुमसे महान् पाशुपत योग की व्याख्या की है। मुझमें भक्ति रखने वाले मनुष्यों को प्रतिदिन इसका श्रवण करना चाहिये। जो श्रेष्ठ मानव मेरे इस धर्मनिश्चय का श्रवण अथवा पाठ करता है, वह इस लोक में धनधान्य और कीर्ति तथा परलोक में स्वर्ग पाता है।

145वाँ अध्याय समाप्त हुआ


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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