"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 62-76": अवतरणों में अंतर

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द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 62-76 का हिन्दी अनुवाद

हिमवान् की पुत्री उमा को जब वह कुमारी अवस्था में थी तभी रुद्र ने पाने की इच्छा की। दूसरी और से महर्षि भृगु भी वहाँ आकर हिमवान् से बोले- ‘अपनी यह कन्या मुझे दे दो।’ तब हिमवान् ने उनसे कहा- ‘इस कन्या के लिये देख-सुनकर लक्षित किये हुए वर रुद्रदेव हैं।’ तब भृगु ने कहा- ‘मैं कन्या का वरण करने की भावना लेकर यहाँ आया था, किंतु तुमने मेरी उपेक्षा का दी है; इसकलये मैं शाप देता हूँ कि तुम रत्नों के भण्डार नहीं हाओगे’। आज भी महर्षि का वचन हिमवान् पर ज्यों-का त्यों लागू हो रहा है। ऐसा ब्राह्मणों का माहात्म्य है। क्षत्रिय जाति भी ब्राह्मणों की कृपा से ही सदा रहने वाली इस अविनाशी पृथ्वी को पत्नी की भाँति पाकर इसका उपभोग करती है। यह जो अग्नि और सोम सम्बन्धी ब्रह्म है, उसी के द्वारा सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है। कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा (अग्नि और सोम) मेरे नेत्र हैं तथा उनकी किरणों को केश कहा गया है। सूर्य और चन्द्रमा जगत् को क्रमशः ताप और मोद प्रदान करते हुए पृथक्-पृथक् उदित होते हैं। अब मैं अपने नामों की व्याख्या करूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत् को मोद और ताप प्रदान करने के कारण चन्द्रमा और सूर्य हर्ष दायक होते हैं। पाण्डुनन्दन ! अग्नि और सोम द्वारा किये गये इन मर्कों द्वारा मैं विश्वभावन वरदायक ईश्वर कह ‘हृषीकेश’[१]कहलाता हूँ। यज्ञ में ‘इलोपहूता सह दिवा’ आदि मन्त्र से आव्हान करने पर मैं अपना भाग हरण (स्वीकार) करता हूँ तथा मेरे यारीर का रंग भी हरित (श्याम) है, इसलिये मुझे ‘हरि’ कहते हैं।

प्राणियों के सार का नाम है धाम और ऋत का अर्थ है सत्य, ऐसा विद्वानों ने विचार किया है। इसीलिये ब्राह्मणों ने तत्काल मेरा नाम ‘ऋतधाम’ रख दिया था।। मैंने पूर्वकाल में नष्ट होकर रसाजल में गसी हुई पृथ्वी को पुनः वराहरूप धारण करके प्रापत किया था, इसलिये देवताओं ने अपनी वाणी द्वारा ‘गोविन्द’ कहकर मेरी स्तुति की थी (गां विदन्ति इति गोविन्दः- जो पृथ्वी को प्राप्त करे, उसका नाम गोविन्द है)। मेरे ‘शिपिविष्ट’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है। रोमहीन प्राणी को शिपि कहते हैं- तथा विष्ट का अर्थ है व्यापक। मैंने निराकार रूप से समस्त जगत् का व्याप्त कर रखा है, इसलिये मुझे ‘शिपिविष्ट’ कहते हैं। यास्कमुनि ने शान्तचित्त होकर अनेक यज्ञों में शिपिविष्ट कहकर मेरी महिमा का गान किया है; अतः मैं इस गुह्यनाम को धारणकरता हूँ। उदारचेता यास्क मुनि ने शिपिविष्ट नाम से मेरी स्तुति करके मेरी ही कृपा से पाताल लोक में नष्ट हुए निरुक्तशास्त्र को पुनः प्रापत किया था। मैंने न पहले कभी जन्म लिया है, न अब जन्म लेता हूँ और न आगे कभी जनम लूँगा। मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला क्षेत्रज्ञ आतमा हूँ। इसीलिये मेरा नाम ‘अज’ है। मैंने कभी ओछी या अश्लील बात मुँह से नहीं निकाली है। सत्यस्वरूपा ब्रह्मपुत्री सरस्वतीदेवी मेरी वाणी है। कुन्तीकुमार ! सत् और असत् को भी मैंने अपने भीतर ही प्रविष्ट कर रक्खा है; इसलिये मेरे नाीिा-कमलरूप ब्रह्मलोक में रहने वाले ऋषिगण मुझे ‘सत्य’ कहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूर्य और चन्द्रमा ही अग्नि एवं सोम हैं। वेजगत् को हर्ष प्रदान करने के कारण-‘हृषी’ कहलाते हैं। वे ही भगवान के केश अर्थात् किरणें हैं, इसलिये भगवान का नाम ‘हृषीकेश’ है।

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