"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-97": अवतरणों में अंतर
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(4.8) | (4.8) सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्। | ||
विवक्त-चीर-वसनं संतोषं येन केनचित्।।<ref>11.3.25</ref></poem> | विवक्त-चीर-वसनं संतोषं येन केनचित्।।<ref>11.3.25</ref></poem> | ||
सर्वत्र आत्मेश्वरान्वीक्षाम्- आत्मा और ईश्वर को सर्वत्र देखन का अभ्यास। अपना रूप सर्वत्र भरा है, परमेश्वर का रूप सर्वत्र भरा है, यही देखने के लिए हमने समाज में जन्म पाया है, न कि एक दूसरे के विरुद्ध काम करने के लिए। इसका अभ्यास करना चाहिए। | सर्वत्र आत्मेश्वरान्वीक्षाम्- आत्मा और ईश्वर को सर्वत्र देखन का अभ्यास। अपना रूप सर्वत्र भरा है, परमेश्वर का रूप सर्वत्र भरा है, यही देखने के लिए हमने समाज में जन्म पाया है, न कि एक दूसरे के विरुद्ध काम करने के लिए। इसका अभ्यास करना चाहिए। |
०९:४७, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
भागवत धर्म मिमांसा
3. माया-संतरण
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(4.8) सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्।
विवक्त-चीर-वसनं संतोषं येन केनचित्।।[१]
सर्वत्र आत्मेश्वरान्वीक्षाम्- आत्मा और ईश्वर को सर्वत्र देखन का अभ्यास। अपना रूप सर्वत्र भरा है, परमेश्वर का रूप सर्वत्र भरा है, यही देखने के लिए हमने समाज में जन्म पाया है, न कि एक दूसरे के विरुद्ध काम करने के लिए। इसका अभ्यास करना चाहिए। कैवल्यम्- दुनिया में केवलहम ही हैं। सामने अनेक लोग दीखते हैं, फिर भी सर्वत्र हम ही हैं। दुनिया मानो एक दर्पण है। दर्पण में दीखने वाला रूप हमारा ही होता है। वैसे ही सारी दुनिया हमारा प्रतिबिम्ब है। जैसे हम हैं, वैसी दुनिया है। सारी जिम्मेवारी हमारी ही है। हम ही दुनिया में व्यवहार कर रहे हैं। इसी का नाम है ‘कैवल्य’। अनिकेतताम्- इसका अर्थ घर छोड़ना करें तो मामला मुश्किल हो जाएगा। मतलब यह होगा कि भागवत धर्म के वरण के लिए कोई घर ही न बनाए। लेकिन ऐसी बात नहीं। अनिकेतता का अर्थ है, घर की आसक्ति न होना- गृहासक्ति न होना। गीता में भी आता है :
'अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियो नरः।
‘जो मनष्य अनिकेत है, बिना घरवाला है और स्थिरमति है यानी जिसकी बुद्धि स्थिर है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है’- ऐसा भगवान् ने गीता में कहा है। अनिकेत का दूसरा अर्थ है, सतत घूमने वाला। कहीं भी रहे, स्थान की आसक्ति न रखे- इसी का नाम है ‘अनिकेतता’। फिर एक छोटी सी चीज है, वह भी बतायी है : विविक्त चीर-त्रसनम्- सादा कपड़ा पहनें। आश्यर्च की बात है कि भागवत् धर्म में जहाँ आदौ मनसः असंङगं जैसी बड़ी-बड़ी बातें कहीं, वहाँ ऐसी छोटी सी भी बात कही जा रही है। आज के जमाने के अनुसार इसका अर्थ करने को कहें तो मैं यही करूँगा कि ‘खादी पहनो’। भागवत के जमाने में तो खादी के सिवा कुछ था ही नहीं। आज तरह-तरह के कपड़ों से देह को सजाते हैं। पर भागवत कहती है कि सादे कपड़े पहनें, यानी देह को न सजायें। केवल शीत-उष्णादि से रक्षा करने के लिए कपड़ा है, या लज्जा रक्षा के लिए।
'संतोषं येन केनचित्
जिस किसी स्थिति में हमें रहना पड़े, उसी में हम पराक्रम करें, शरीर-श्रम करें, प्रामाणिक धंधा करके कमाई करें और जो कुछ मिले, उसी में संतोष मानें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.3.25
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