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“कर्म”, भगवान् कहते हैं कि , “ बुद्धियोग की अपेक्षा बहुत नीचे दर्जे की चीज हैं, इसलिये बुद्धि की शरण लेने की इच्छा करो; वे लोग दरिद्र और पामर हैं जो कर्मफल को अपने विचार और अपनी कर्मण्यताओं का विषय बनाते हैं ” ।<ref>2.49</ref> हमें सांख्यों की उस मनोवैज्ञानिक क्रमव्यवस्था को याद रखना चाहिये जिसे गीता ने स्वीकार किया है। इस क्रमव्यवस्था में एक ओर पुरूष है जो स्थिर, अकर्ता, अक्षय, एक और अविकार्य है; दूसरी ओर प्रकृति है जो सचेतन पुरूष के बिना स्वयं जड़ है, जो कन्नी है, - पर इसका यह गुण पुरूष की चेतना के सात्रिध्य से, उसके संपर्क में आने से ही है। कहा जा सकता है कि आरंभ में वह पुरूष के साथ एक नहीं हो जाती, बल्कि अनिश्चित रूप से उसके संपर्क में आती है, जिस रूप में वह त्रिगुणत्मिका है , विवर्तन और निवर्तन की योग्यता रखती है। पुरूष और प्रकृति के परस्पर - संपर्क से ही आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ और क्रीडा होती है , जो हमारी सत्ता का अनुभव है। हमारा जो अंतरंग पहले वह विकसित होता है, क्योंकि प्रथम कारण पुरूष - चैतन्य है, और जड़ प्रकृति केवल द्वितीय कारण है और पहले पर आश्रित है । तथापि हमारी अंतरंगता के जो कारण हैं उनकी उत्पत्ति प्रकृति से है; पुरूष से नहीं।  
 
“कर्म”, भगवान् कहते हैं कि , “ बुद्धियोग की अपेक्षा बहुत नीचे दर्जे की चीज हैं, इसलिये बुद्धि की शरण लेने की इच्छा करो; वे लोग दरिद्र और पामर हैं जो कर्मफल को अपने विचार और अपनी कर्मण्यताओं का विषय बनाते हैं ” ।<ref>2.49</ref> हमें सांख्यों की उस मनोवैज्ञानिक क्रमव्यवस्था को याद रखना चाहिये जिसे गीता ने स्वीकार किया है। इस क्रमव्यवस्था में एक ओर पुरूष है जो स्थिर, अकर्ता, अक्षय, एक और अविकार्य है; दूसरी ओर प्रकृति है जो सचेतन पुरूष के बिना स्वयं जड़ है, जो कन्नी है, - पर इसका यह गुण पुरूष की चेतना के सात्रिध्य से, उसके संपर्क में आने से ही है। कहा जा सकता है कि आरंभ में वह पुरूष के साथ एक नहीं हो जाती, बल्कि अनिश्चित रूप से उसके संपर्क में आती है, जिस रूप में वह त्रिगुणत्मिका है , विवर्तन और निवर्तन की योग्यता रखती है। पुरूष और प्रकृति के परस्पर - संपर्क से ही आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ और क्रीडा होती है , जो हमारी सत्ता का अनुभव है। हमारा जो अंतरंग पहले वह विकसित होता है, क्योंकि प्रथम कारण पुरूष - चैतन्य है, और जड़ प्रकृति केवल द्वितीय कारण है और पहले पर आश्रित है । तथापि हमारी अंतरंगता के जो कारण हैं उनकी उत्पत्ति प्रकृति से है; पुरूष से नहीं।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:०४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

जिस बुद्धि शब्द का यहां प्रयोग हुआ है उसका विशिष्ट अर्थ तो समझने - बूझने की मानसिक शक्ति है, किंतु गीता में बुद्धि शब्द का प्रयोग इसके व्यापक दार्शनिक अर्थ में हुआ है, गीता में बुद्धि से अभिप्रेत है मन की विवेक और निश्चय करने वाली समस्त क्रिया , मन अर्थात वह तत्व जो हमारे विचारों का कार्य और उनकी गति की दिशा तथा हमारे कर्मो का उपयोग और उनकी गति की दिशा - इन दोनों बातों का निश्चय करता है। विचार, बोध , निर्णय,मानसिक पसंद और लक्ष्य ये सब बुद्धि के धर्म के अंतर्गत है । क्योंकि एक निष्ठ बुद्धि का लक्षण केवल बोध करने वाले मन की एकाग्रता ही नहीं है , बल्कि उस मन की एकाग्रता भी है जो निश्चय करने वाला अर्थात् व्यवसायी है और फिर यह मन अपने निश्चय पर जमा रहता है, दूसरी ओर अव्यवसायात्मिका बुद्धि का लक्षण भी उसकी भावनाओं और इन्द्रियानुभवों का भटकते रहना उतना नहीं है जितना उसके लक्ष्यों और उसकी इच्छाओं का फलतः उसके संकल्प का इधर - उधर भटकते रहना है। संकल्प और ज्ञान , ये दोनां कर्म बुद्धि के हैं । एक निष्ठ बुद्धि ज्ञानदीप्त आत्मा में स्थिर होती है, आंतर आत्मज्ञान में एकाग्र होती है; और इसके विपरीत जो बुद्धि बहुशाखावाली और बुहुधंधी है , जो बहुत से व्यापारों में लगी है लेकिन अपने एकमात्र परमावश्यक कर्म की उपेक्षा करती है , वह मन की चचंल तथा इधर - उधर भटकने वाली क्रियाओं के अधीन रहती और बाह्म जीवन और कर्मो तथा उनके फलों में विाखरी रहती है।
“कर्म”, भगवान् कहते हैं कि , “ बुद्धियोग की अपेक्षा बहुत नीचे दर्जे की चीज हैं, इसलिये बुद्धि की शरण लेने की इच्छा करो; वे लोग दरिद्र और पामर हैं जो कर्मफल को अपने विचार और अपनी कर्मण्यताओं का विषय बनाते हैं ” ।[१] हमें सांख्यों की उस मनोवैज्ञानिक क्रमव्यवस्था को याद रखना चाहिये जिसे गीता ने स्वीकार किया है। इस क्रमव्यवस्था में एक ओर पुरूष है जो स्थिर, अकर्ता, अक्षय, एक और अविकार्य है; दूसरी ओर प्रकृति है जो सचेतन पुरूष के बिना स्वयं जड़ है, जो कन्नी है, - पर इसका यह गुण पुरूष की चेतना के सात्रिध्य से, उसके संपर्क में आने से ही है। कहा जा सकता है कि आरंभ में वह पुरूष के साथ एक नहीं हो जाती, बल्कि अनिश्चित रूप से उसके संपर्क में आती है, जिस रूप में वह त्रिगुणत्मिका है , विवर्तन और निवर्तन की योग्यता रखती है। पुरूष और प्रकृति के परस्पर - संपर्क से ही आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ और क्रीडा होती है , जो हमारी सत्ता का अनुभव है। हमारा जो अंतरंग पहले वह विकसित होता है, क्योंकि प्रथम कारण पुरूष - चैतन्य है, और जड़ प्रकृति केवल द्वितीय कारण है और पहले पर आश्रित है । तथापि हमारी अंतरंगता के जो कारण हैं उनकी उत्पत्ति प्रकृति से है; पुरूष से नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.49

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