"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 42": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
छो (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-42 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 42 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
 
(कोई अंतर नहीं)

०८:५०, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
5.कुरुक्षेत्र

संघशक्ति स्वयं युद्ध की, अहंकार की, एक प्राणी के द्वारा दूसरे पर स्वत्व स्थापित करने वाली वृत्ति की दासी रही है। स्वयं प्रेम सदा मृत्यु की शक्ति रहा है। विशेषतः शुभ के प्रेम को और भगवान् के प्रेम को मानव-अहंकार ने जिस रूप में गले लगाया उसके कारण बहुत-सी लड़ाई-भिड़ाई, मार-काट और तबाही हुई है। आत्म बलिदान बहुत बड़ी और उदात्त चीज है, पर बड़े-से-बड़े आत्म बलिदान का यही अर्थ होता है कि हम मृत्यु के द्वारा जीवन के सिद्धांत को ही सकारते हैं और इस भेंट को हम अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये उस शक्ति की वेदी पर चढ़ाते हैं जो बलि चाहती है। चिडि़या अपने बच्चों की रक्षा के लिये घातक पशु का सामना करती है, देशभक्त अपने देश की स्वतंत्रता के लिये अपने शरीर की आहुति देता है, धर्मात्मा अपने को धर्म पर न्योछावर करता है और भावुक अपनी भावना पर, ये सब प्राणी-जीवन की नीची से लेकर ऊंची श्रेणियों तक में, आत्म-बलिदान के सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं, और यह स्पष्ट है कि ये किस बात के साक्षी हैं। लेकिन अगर हम आने वाले परिणामों को देखें तो सहज-आशावाद और भी कम संभव रह जाता है। देशभक्त को देश की स्वाधीनता के लिये मरते हुए देखिये। और जब कर्म का अधिष्ठाता रक्त और कष्टों का मूल्य चुका दे तो उसके कुछ ही दशकों के बाद उस देश को देखिये। वह अपनी बारी में अत्याचारी, शोषक और उपनिवेशों और अधीन देशों का विजेता बन जाता है और आक्रामक रूप में जीने और सफल होने के लिये दूसरों को हड़पता है।
ईसाई शहीद साम्राज्य-शक्ति के मुकाबले आत्मशक्ति को लगाकर हजारों की संख्या में मर मिटे, ताकि ईसा की जय हो, ईसाई-धर्म की धाक जमे। आत्मबल विजयी हुआ, ईसाई-धर्म की धाक जमी, पर ईसा की नहीं; विजयी धर्म लड़ाकू और हुकूमत करने वाला संप्रदाय बन गया, जिस मत और संप्रदाय को हटाकर इसने अपना प्रभुत्व जमाया था उससे भी अधिक यह आततायी और अत्याचारी बन बैठा। धर्म भी आपस में लड़ने वाली शक्तियों में संगठित हो जाते हैं और संसार में रहने, बढ़ने और उस पर अपनी धाक जमाने के लिये परस्पर भीषण संग्राम करते हैं। इन सब बातों से यही प्रकट होता है कि इस जगत् के जीवन में कोई ऐसा तत्व है, कदाचित् वह आदितत्व ही हो, जिस पर विजय प्राप्त करने का ढंग हम नहीं जानते और इसका कारण या तो यह है कि वह जीता ही नहीं जा सकता अथवा यह कि हमने उसे ऐसी बलवान् और पक्षपातरहित दृष्टि से देखा ही नहीं कि शान्त-स्थिर और निष्पक्ष होकर उसे पहचान सकें और यह जान लें कि वह क्या चीज है। यदि वास्तविक समाधान पाना हमारा उद्देश्य है, वह समाधान चाहे जैसा भी क्यों न हो, तो हमें जीवन का पूरी तरह सामना करना होगा और जीवन का सामना करने का अर्थ है भगवान् का सामना करना क्योंकि दोनों को एक-दूसरे-से अलग नहीं किया जा सकता और जिसने जगत्-जीवन को बनाया है, और जो उसमें व्याप्त है उससे जगत् के विधानों की जिम्मेदारी को हटाया नहीं जा सकता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध