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ईदिपस ग्रंथि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 28 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | ओंप्रकाश कपूर |
ईदिपस ग्रंथि मनोविश्लेषण के जन्मदाता डाक्टर सिगमंड फ्रायड ने पुत्र की अपनी माता के प्रति कामवासना (सेक्स) की ग्रंथि को 'ईदिपस ग्रंथि' की संज्ञा दी। प्राचीन ग्रीक लोककथाओं तथा सोफोक्लीज द्वारा लिखित ईदिपस रेक्स के अनुसार ईदिपस थीबिज़ के राजा लेउस और रानी जोकास्ता का पुत्र था। ईदिपस के जन्म के पूर्व ही एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि यह अपने पिता का हत्यारा होगा। इसलिए जन्म लेते ही इसे राजा लेउस ने राज्य से निकाल दिया। ईदिपस का उद्धार पड़ोस के राजा के द्वारा हुआ जिसके यहाँ उसका राजकुमारों जैसा लालन पालन हुआ। बड़े होने पर इसने भी ज्योतिषी से परामर्श किया जिसने उसे यह चेतावनी दी कि वह अपनी मातृभूमि छोड़कर चला जाए क्योंकि उसके भाग्य में अपने पिता का हत्यारा और अपनी माता का पति होना लिखा है। ईदिपस राज्य छोड़ चल पड़ा। लेकिन मार्ग में ही उसे राजा लेउस मिला जिसे उसने एक हल्की मुठभेंड में ही मार डाला। वह थीबिज़ पहुँचा जहाँ उसने दैत्य स्फ़िंक्स पर विजय प्राप्त की जिसके आतंक से थीबिज़वासी पीड़ित थे। कृतज्ञ थीविज़वासियों ने उसे वहाँ का राजा निर्वाचित किया तथा जोकास्ता का हाथ उसके हाथों में दे दिया। बहुत वर्षो तक शांति और सम्मानपूर्वक राज्य करते हुए उसे जोकास्ता से दो पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। कुछ समय उपरांत थीबिज़ में भीषण महामारी फैली। थीबिज़वासियों ने ज्योतिषी से परामर्श किया जिसने कहा कि जब तक लेउस के हत्यारे को थीबिज़ से निष्कासित नहीं किया जाएगा तब तक महामारी का प्रकोप शांत नहीं हो सकता। इधर ईदिपस को भी अपनी माता और पिता का रहस्य ज्ञात हो गया। पश्चात्तापवश उसने अपनी आँखें फोड़ लीं तथा उसके पुत्रों ने उसे थीबिज़ से निष्कासित कर दिया। जोकास्ता ने आत्मग्लानिवश फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
फ्रायड के अनुसार ईदिपस की यह कथा हर मनुष्य के अंतर में छिपी हुई कामवासना की एक ग्रंथि का सांकेतिक प्रतिनिधान करती है। मनुष्य की प्रथम कामवासना का लक्ष्य माता और प्रथम हिंसा और घृणा के भाव का लक्ष्य पिता होता है। इसी कामवासना की भावग्रंथि को इन्होंने ईदिपस ग्रंथि के नाम से संबोधित किया। मनुष्य के जीवन पर इसके प्रभावों की चर्चा करते हुए इन्होंने कहा कि यही ग्रंथि हमारे नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियमों तथा प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में कार्यरत है। पाप और अपराध की भावना का जन्म इसी से हुआ। अपने को किसी प्रकार का स्वत: आघात पहुँचाने, आत्महत्या करने या अपने को स्वत: दंडित करने के भाव इसी के कारणवश उत्पन्न होते हैं। इनके अनुसार मनुष्य के विकास की जड़ में यह ग्रंथि ही है क्योंकि विकास के प्रारंभ में मनुष्यों ने सर्वप्रथम अपने ऊपर केवल दो प्रतिबंध लगाए। पहला, अपने जन्मदाता या पिता की हत्या न करना और दूसरा, अपनी जननी या माता से विवाह न करना। यही दो प्रथम नैतिक और धार्मिक नियम हैं।
किसी भी प्रकार की मानसिक विकृतावस्था और मुख्यतया मनोदौर्बल्य (साइकोन्यूरोसिस) का भी मूल कारण इन्होंने इसी ग्रंथि को माना। इनका कथन था कि यह ग्रंथि सामान्य और असामान्य दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों में पाई जाती है, अंतर केवल इतना है कि एक ने उसपर विजय प्राप्त कर ली है और इसलिए वह सामान्य है जबकि दूसरा उसका दास है और इसलिए वह असामान्य है। विभिन्न समूहों, जतियों और समाजों के आपसी मतभेद तथा संघर्षो का मूल कारण भी उनके अपने माता-पिता के प्रति स्थापित प्रत्ययों की भिन्नता ही है, ऐसा इनका विचार था।
एक ही वस्तु के प्रति प्रेम और घृणा के विपरीत भावों के विद्यमान होने का कारण भी इन्होंने 'ईदिपस ग्रंथि' को ही माना। हमारा संवेगात्मक जीवन, मौलिक रूप में, एक ही वस्तु के प्रति इस प्रकार के विपरीत भावों के समावेश से अपरिचित था। सर्वप्रथम ऐसे भावों की उत्पत्ति संभवत: माता पिता के प्रति हमारे संवेगात्मक संबंधों से ही होती है क्योंकि इनका प्रबलतम रूप माता पिता के प्रति भावों में ही पाया जाता है।
माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति घृणा के भावों को कभी कभी धनात्मक (पाज़िटिव) ईदिपस ग्रंथि तथा पिता के प्रति प्रेम और माता के प्रति घृणा को ऋणात्मक (नेगेटिव) ईदिपस ग्रंथि कहा जाता है। इस ग्रंथि का एक स्वरूप पुत्री का पिता के प्रति कामवासना की भावना भी पाया जाता है जिसे एलेक्ट्रा ग्रंथि कहा जाता है।
फ्रायड के इस कथन के विरोध में कि ईदिपस ग्रंथि सार्वभौमिक है, इसका आधार जन्मजात है तथा यह एक ही स्वरूप में हर मनुष्य में पाई जाती है, नव-फ्रायडीय तथा अन्य आधुनिक सिद्धांतों ने कहा कि इसका आधार संस्कृति माना जाता है, यही इसके स्वरूप का विभिन्न व्यक्तियों में निर्धारण करती है। फेनिचल के अनुसार व्यक्ति के अपने पारिवारिक अनुभव ही उसकी इस ग्रंथि की उत्पत्ति और उसके वास्तविक स्वरूप का निर्धारण करते हैं। ऐडलर ने इस ग्रंथि को मौलिक या जन्मजात नहीं माना वरन् उसने कहा कि यह माता के अधिक लाड़ प्यार का अप्राकृतिक परिणाम है। जुंग के अनुसार यह ग्रंथि मनुष्य की पुनर्जन्म की मौलिक इच्छा का सांकेतिक प्रतिनिधान करती है अर्थात् मनुष्य की मौलिक इच्छा अपने जन्मस्थान में लौट जाने की होती है। रैंक ने जुंग की इस काल्पनिक उड़ान को स्वीकार करते हुए भी यह कहा था कि इस ग्रंथि का सार बालक के अपने माता पिता के प्रति संपूर्ण संबंधों में है। पारिवारिक संबंधों की महत्ता को स्वीकार करते हुए हार्नी ने इसे दो स्थितियों पर आधारित बताया। पहली परिस्थिति माता पिता की उत्तेजक कामवासनाएँ हैं और दूसरी, दूसरों पर आश्रित रहने की आवश्यकताओं तथा माता-पिता के प्रति हिंसात्मक भावनाओं के मानसिक द्वंद्व से उत्पन्न चिंता की स्थिति है। फ्रोम ने पितापुत्र के बीच इस संघर्ष का आधार कामवासना न मानकर पितृप्रधान समाजों की अधिकार प्राप्त करने की भावना माना है।
सलिवन,टाम्सन आदि अन्य विद्वानों ने भी परिवार के अंतर्गत पारस्परिक संबंधों को ही इस ग्रंथि का आधार माना है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ