"श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 1 श्लोक 28-42": अवतरणों में अंतर

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==प्रथमोऽध्यायः (1) ==
==प्रथम (1) अध्याय==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत माहात्म्य प्रथमोऽध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत माहात्म्य प्रथमोऽध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद </div>



०७:३४, १६ जुलाई २०१५ का अवतरण

प्रथम (1) अध्याय

श्रीमद्भागवत माहात्म्य प्रथमोऽध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद

यहीं वह व्रजभूमि है, जिसमें भगवान् की वह वास्तवी रहस्य-लीला गुप्तरूप से होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण ह्रदय वाले रसिक भक्तों को सब ओर दीखने लगती है । कभी अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में जब भगवान् की रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस समय भगवान् अपने अन्तरंग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतार का यह प्रयोजन होता है कि रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरंग परिकारों के साथ सम्मिलित होकर लीला-रस का आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान् के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब ओर अवतार लेते हैं । अभी-अभी जो अवतार हुआ था, उसमें भगवान् अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो चुके हैं। इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे; इसमें सन्देह नहीं है । उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो भगवान् कके नित्य ‘अन्तरंग’ पार्षद हैं—वे हैं, जो एकमात्र भगवान् को पाने की इच्छा रखते हैं—उनकी अन्तरंग-लीला में अपना प्रवेश चाहते हैं। तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं। इनमें से जो देवता आदि के अंश से अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान् ने व्रजभूमि से हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था । फिर भगवान् ने ब्राम्हण के शाप से उत्पन्न मूसल को निमित्त बनाकर यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्ग में भेज दिया और पुनः अपने-अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान् को पाने की इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्दस्वरुप बनाकर श्रीकृष्ण ने सदा के लिये अपने नित्य अन्तरंग पार्षदों में सम्मिलित कर लिया। जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूप से होने वाली नित्य लीला में सदा ही रहते हैं, परन्तु जो उनके दर्शन के अधिकारी नहीं हैं; ऐसे पुरुषों के लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं । जो लोग व्यावहारिक लीला में स्थित हैं, वे नित्य लीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं हैं; इसलिये यहाँ आने वालों को सब ओर निर्जन वन—सूना-ही-सूना दिखायी देता है; क्योंकि वे वास्तविक लीला में स्थित भक्तजनों को देख नहीं सकते । इसलिये वज्रनाभ! तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम मेरी आज्ञा से यहाँ बहुत-से गाँव बसाओ; इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथों की सिद्धि होगी । भगवान् श्रीकृष्ण ने जहाँ जैसी लीला की है, उसके अनुसार उस स्थान का नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस प्रकार दिव्य व्रजभूमि का भलीभाँति सेवन करते रहो । गोवर्धन, दीर्घपुर (डीग), मथुरा, महावन (गोकुल), नन्दिग्राम (नन्द गाँव) और बृहत्सानु (बरसाना) आदि में तुम्हें अपने लिये छावनी बनवानी चाहिये । उन-उन स्थानों में रहकर भगवान् की लीला के स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुण्ड तथा कुंज-वन आदि का सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करने से तुम्हारे राज्य में प्रजा बहुत ही सम्पन्न होगी और तुम भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे । यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है, अतः तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमि का सेवन करना चाहिये। मैं आशीर्वाद देता हूँ; मेरी कृपा से भगवान् की लीला के जितने भी स्थल है, सबकी तुम्हें ठीक-ठीक पहचान हो जायगी । वज्रनाभ! इस व्रजभूमि का सेवन करते रहने से तुम्हें किसी दिन उद्धवजी मिल जायँगे। फिर तो अपनी माताओं सहित तुम उन्हीं से इस भूमि का तथा भगवान् की लीला का रहस्य भी जान लोगे । मुनिवर शाण्डिलजी उन दोनों को इस प्रकार समझा-बुझाकर भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अपने आश्रम पर चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित् और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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