"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 56-60": अवतरणों में अंतर
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==चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: | ==चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-60 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
इसके विपरीत जो शुद्ध कुल में उत्पन्न और जीवहिंसा से अलग रहने वाला है, जिसने शस्त्र और दण्ड का परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसी की हिंसा नहीं होती, जो न मारता है, न माने की आज्ञा देता है और न मारने वाले का अनुमोदन ही करता है। जिसके मन में सब प्राणियों के प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरों पर भी दयादृष्टि रखता है। देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरूष देवत्व को प्राप्त होता है और देवलोक में प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगों का अनुभव करता है। अथवा यदि कदाचित् वह मनुष्यलोक में जन्म लेता है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है। यह सत्कर्म का अनुष्ठान करने वाले सदाचारी एवं दीर्घजीवी मनुष्यों का लक्षण है। स्वयं ब्रह्माजी ने इस मार्ग का उपदेश किया है। समस्त प्राणियों की हिंसा का परित्याग करने से ही इसकी उपलब्धि होती है। | इसके विपरीत जो शुद्ध कुल में उत्पन्न और जीवहिंसा से अलग रहने वाला है, जिसने शस्त्र और दण्ड का परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसी की हिंसा नहीं होती, जो न मारता है, न माने की आज्ञा देता है और न मारने वाले का अनुमोदन ही करता है। जिसके मन में सब प्राणियों के प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरों पर भी दयादृष्टि रखता है। देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरूष देवत्व को प्राप्त होता है और देवलोक में प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगों का अनुभव करता है। अथवा यदि कदाचित् वह मनुष्यलोक में जन्म लेता है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है। यह सत्कर्म का अनुष्ठान करने वाले सदाचारी एवं दीर्घजीवी मनुष्यों का लक्षण है। स्वयं ब्रह्माजी ने इस मार्ग का उपदेश किया है। समस्त प्राणियों की हिंसा का परित्याग करने से ही इसकी उपलब्धि होती है। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 37-55|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 श्लोक 1-19}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
१२:२०, २५ जुलाई २०१५ का अवतरण
चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-60 का हिन्दी अनुवाद
इसके विपरीत जो शुद्ध कुल में उत्पन्न और जीवहिंसा से अलग रहने वाला है, जिसने शस्त्र और दण्ड का परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसी की हिंसा नहीं होती, जो न मारता है, न माने की आज्ञा देता है और न मारने वाले का अनुमोदन ही करता है। जिसके मन में सब प्राणियों के प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरों पर भी दयादृष्टि रखता है। देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरूष देवत्व को प्राप्त होता है और देवलोक में प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगों का अनुभव करता है। अथवा यदि कदाचित् वह मनुष्यलोक में जन्म लेता है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है। यह सत्कर्म का अनुष्ठान करने वाले सदाचारी एवं दीर्घजीवी मनुष्यों का लक्षण है। स्वयं ब्रह्माजी ने इस मार्ग का उपदेश किया है। समस्त प्राणियों की हिंसा का परित्याग करने से ही इसकी उपलब्धि होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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