"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-6": अवतरणों में अंतर
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== | ==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<h4 style="text-align:center;">संछेप में राजधर्म का वर्णन </h4> | <h4 style="text-align:center;">संछेप में राजधर्म का वर्णन </h4> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-6 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
श्रीमहादेवजी कहते हैं- देवि! राजाओं को अपने सेवकों के साथ हास-परिहास नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें लघुता प्राप्त होती है और उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया जाता है। सेवकों के साथ हँसी-परिहास करने से राजा का तिरस्कार होता है। वे धृष्ट सेवक न माँगने योग्य वस्तुओं को भी माँग बैठते है और न कहने योग्य बातें भी कह डालते हैं। पहले से ही उचित लाभ मिलने पर भी वे संतुष्ट नहीं होते, इसलिये राजा सेवकों के साथ हँसी-मजाक करना छोड़ दे। राजा अविश्वस्त पुरूष पर कभी विश्वास न करे। जो विश्वस्त हो, उस पर भी पूरा विश्वास न करे, विशेषतः अपने समान गोत्रवाले भाई-बन्धुओं पर किसी भी उपाय से कदापि विश्वास न करे। जैसे वज्र वृक्ष को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार विश्वास से उत्पन्न हुआ भय राजा को नष्ट कर डालता है। प्रमादवश लोभ के वशीभूत हुआ राजा मारा जाता है। अतः प्रमाद और लोभ को अपने भीतर न आने दे तथा किसी पर भी विश्वास न करे। राजा भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करे, कर्तव्य और अकर्तव्य को विशेषरूप से समझे और सदा राष्ट्र के हित में संलग्न रहे। अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखावे। राज्य में स्थित रहकर प्रजा के पालन में तत्पर रहे। लोभशून्य होकर न्याययुक्त बात कहे और प्रजा की आय का छठा भाग मात्र लेकर जीवन-निर्वाह करे। कर्तव्य-अकर्तव्य को समझे। सबको धर्म की दृष्टि से देखे! अपने राष्ट्र के निवासियों पर दया करे और कभी न करने योग्य कर्म में प्रवृत्त न हो। जो मनुष्य राजा की प्रशंसा करते हैं और जो उसकी निन्दा करते हैं, इनमें से शत्रु भी यदि निरपराध हो तो उसे मित्र के समान देखे। दुष्ट को अपराध के अनुसार दण्ड देकर उसका शासन करे। जहाँ राजा न्यायोचित दण्ड में रूचि रखता है, वहाँ धर्म का पालन होता है। जहाँ राजा क्षमाशील न हो, वहाँ अधर्म नहीं होता। अशिष्ट पुरूषों को दण्ड देना और शिष्ट पुरूषों का पालन करना राजा का धर्म है। राजा वध के योग्य पुरूषों का वध करे और जो वध के योग्य न हों, उनकी रक्षा करे। ब्राह्मण, गौ, दूत, पिता, जो विद्या पढ़ाता है वह अध्यापक तथा जिन्होंने पहले कभी उपकार किये हैं वे मनुष्य- ये सब के सब अवध्य माने गये हैं। स्त्रियों का तथा जो सबका अतिथि-सत्कार करने वाला हो, उस मनुष्य का भी वध नहीं करना चाहिये। पृथ्वी, गौ, सुवर्ण, सिद्धान्न, तिल और घी- इन वस्तुओं का ब्राह्मण के लिये प्रतिदिन दान करने वाला राजा पाप से मुक्त हो जाता है। जो राजा इस प्रकार राष्ट्र के हित में तत्पर हो प्रतिदिन ऐसा बर्ताव करता है, उसके राष्ट्र, धन, धर्म, यश और कीर्ति का विस्तार होता है। ऐसा राजा पाप और अनर्थ का भागी नहीं होता। जो नरेष प्रजा की आय के छठे भाग का उपयोग तो करता है, परंतु धर्म या पराक्रम द्वारा स्वचक्र(अपनी मण्डली के लोगों) तथा परचक्र (शत्रुमण्डली के लोगों)- से प्रजा की रक्षा नहीं करता एवं जो राजा दूसरे के राष्ट्र पर आक्रमण करने के विषय में सदा उद्योगहीन बना रहता है, उस प्रतापहीन राजा का राज्य शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। | श्रीमहादेवजी कहते हैं- देवि! राजाओं को अपने सेवकों के साथ हास-परिहास नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें लघुता प्राप्त होती है और उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया जाता है। सेवकों के साथ हँसी-परिहास करने से राजा का तिरस्कार होता है। वे धृष्ट सेवक न माँगने योग्य वस्तुओं को भी माँग बैठते है और न कहने योग्य बातें भी कह डालते हैं। पहले से ही उचित लाभ मिलने पर भी वे संतुष्ट नहीं होते, इसलिये राजा सेवकों के साथ हँसी-मजाक करना छोड़ दे। राजा अविश्वस्त पुरूष पर कभी विश्वास न करे। जो विश्वस्त हो, उस पर भी पूरा विश्वास न करे, विशेषतः अपने समान गोत्रवाले भाई-बन्धुओं पर किसी भी उपाय से कदापि विश्वास न करे। जैसे वज्र वृक्ष को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार विश्वास से उत्पन्न हुआ भय राजा को नष्ट कर डालता है। प्रमादवश लोभ के वशीभूत हुआ राजा मारा जाता है। अतः प्रमाद और लोभ को अपने भीतर न आने दे तथा किसी पर भी विश्वास न करे। राजा भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करे, कर्तव्य और अकर्तव्य को विशेषरूप से समझे और सदा राष्ट्र के हित में संलग्न रहे। अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखावे। राज्य में स्थित रहकर प्रजा के पालन में तत्पर रहे। लोभशून्य होकर न्याययुक्त बात कहे और प्रजा की आय का छठा भाग मात्र लेकर जीवन-निर्वाह करे। कर्तव्य-अकर्तव्य को समझे। सबको धर्म की दृष्टि से देखे! अपने राष्ट्र के निवासियों पर दया करे और कभी न करने योग्य कर्म में प्रवृत्त न हो। जो मनुष्य राजा की प्रशंसा करते हैं और जो उसकी निन्दा करते हैं, इनमें से शत्रु भी यदि निरपराध हो तो उसे मित्र के समान देखे। दुष्ट को अपराध के अनुसार दण्ड देकर उसका शासन करे। जहाँ राजा न्यायोचित दण्ड में रूचि रखता है, वहाँ धर्म का पालन होता है। जहाँ राजा क्षमाशील न हो, वहाँ अधर्म नहीं होता। अशिष्ट पुरूषों को दण्ड देना और शिष्ट पुरूषों का पालन करना राजा का धर्म है। राजा वध के योग्य पुरूषों का वध करे और जो वध के योग्य न हों, उनकी रक्षा करे। ब्राह्मण, गौ, दूत, पिता, जो विद्या पढ़ाता है वह अध्यापक तथा जिन्होंने पहले कभी उपकार किये हैं वे मनुष्य- ये सब के सब अवध्य माने गये हैं। स्त्रियों का तथा जो सबका अतिथि-सत्कार करने वाला हो, उस मनुष्य का भी वध नहीं करना चाहिये। पृथ्वी, गौ, सुवर्ण, सिद्धान्न, तिल और घी- इन वस्तुओं का ब्राह्मण के लिये प्रतिदिन दान करने वाला राजा पाप से मुक्त हो जाता है। जो राजा इस प्रकार राष्ट्र के हित में तत्पर हो प्रतिदिन ऐसा बर्ताव करता है, उसके राष्ट्र, धन, धर्म, यश और कीर्ति का विस्तार होता है। ऐसा राजा पाप और अनर्थ का भागी नहीं होता। जो नरेष प्रजा की आय के छठे भाग का उपयोग तो करता है, परंतु धर्म या पराक्रम द्वारा स्वचक्र(अपनी मण्डली के लोगों) तथा परचक्र (शत्रुमण्डली के लोगों)- से प्रजा की रक्षा नहीं करता एवं जो राजा दूसरे के राष्ट्र पर आक्रमण करने के विषय में सदा उद्योगहीन बना रहता है, उस प्रतापहीन राजा का राज्य शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। |
०५:४८, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
संछेप में राजधर्म का वर्णन
श्रीमहादेवजी कहते हैं- देवि! राजाओं को अपने सेवकों के साथ हास-परिहास नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें लघुता प्राप्त होती है और उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया जाता है। सेवकों के साथ हँसी-परिहास करने से राजा का तिरस्कार होता है। वे धृष्ट सेवक न माँगने योग्य वस्तुओं को भी माँग बैठते है और न कहने योग्य बातें भी कह डालते हैं। पहले से ही उचित लाभ मिलने पर भी वे संतुष्ट नहीं होते, इसलिये राजा सेवकों के साथ हँसी-मजाक करना छोड़ दे। राजा अविश्वस्त पुरूष पर कभी विश्वास न करे। जो विश्वस्त हो, उस पर भी पूरा विश्वास न करे, विशेषतः अपने समान गोत्रवाले भाई-बन्धुओं पर किसी भी उपाय से कदापि विश्वास न करे। जैसे वज्र वृक्ष को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार विश्वास से उत्पन्न हुआ भय राजा को नष्ट कर डालता है। प्रमादवश लोभ के वशीभूत हुआ राजा मारा जाता है। अतः प्रमाद और लोभ को अपने भीतर न आने दे तथा किसी पर भी विश्वास न करे। राजा भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करे, कर्तव्य और अकर्तव्य को विशेषरूप से समझे और सदा राष्ट्र के हित में संलग्न रहे। अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखावे। राज्य में स्थित रहकर प्रजा के पालन में तत्पर रहे। लोभशून्य होकर न्याययुक्त बात कहे और प्रजा की आय का छठा भाग मात्र लेकर जीवन-निर्वाह करे। कर्तव्य-अकर्तव्य को समझे। सबको धर्म की दृष्टि से देखे! अपने राष्ट्र के निवासियों पर दया करे और कभी न करने योग्य कर्म में प्रवृत्त न हो। जो मनुष्य राजा की प्रशंसा करते हैं और जो उसकी निन्दा करते हैं, इनमें से शत्रु भी यदि निरपराध हो तो उसे मित्र के समान देखे। दुष्ट को अपराध के अनुसार दण्ड देकर उसका शासन करे। जहाँ राजा न्यायोचित दण्ड में रूचि रखता है, वहाँ धर्म का पालन होता है। जहाँ राजा क्षमाशील न हो, वहाँ अधर्म नहीं होता। अशिष्ट पुरूषों को दण्ड देना और शिष्ट पुरूषों का पालन करना राजा का धर्म है। राजा वध के योग्य पुरूषों का वध करे और जो वध के योग्य न हों, उनकी रक्षा करे। ब्राह्मण, गौ, दूत, पिता, जो विद्या पढ़ाता है वह अध्यापक तथा जिन्होंने पहले कभी उपकार किये हैं वे मनुष्य- ये सब के सब अवध्य माने गये हैं। स्त्रियों का तथा जो सबका अतिथि-सत्कार करने वाला हो, उस मनुष्य का भी वध नहीं करना चाहिये। पृथ्वी, गौ, सुवर्ण, सिद्धान्न, तिल और घी- इन वस्तुओं का ब्राह्मण के लिये प्रतिदिन दान करने वाला राजा पाप से मुक्त हो जाता है। जो राजा इस प्रकार राष्ट्र के हित में तत्पर हो प्रतिदिन ऐसा बर्ताव करता है, उसके राष्ट्र, धन, धर्म, यश और कीर्ति का विस्तार होता है। ऐसा राजा पाप और अनर्थ का भागी नहीं होता। जो नरेष प्रजा की आय के छठे भाग का उपयोग तो करता है, परंतु धर्म या पराक्रम द्वारा स्वचक्र(अपनी मण्डली के लोगों) तथा परचक्र (शत्रुमण्डली के लोगों)- से प्रजा की रक्षा नहीं करता एवं जो राजा दूसरे के राष्ट्र पर आक्रमण करने के विषय में सदा उद्योगहीन बना रहता है, उस प्रतापहीन राजा का राज्य शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
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