"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 12-25": अवतरणों में अंतर

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जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं—उसकी हिंसा नहीं करता ।
जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं—उसकी हिंसा नहीं करता ।


यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है । जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान् के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है ? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं ।  ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं । इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान् की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान् के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे ।
यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है<ref> धनी पुरुष में तीन दोष होते हैं—धन, धन का अभिमान और धन की तृष्णा। दरिद्र पुरुष में पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है। इसलिये सत्पुरुषों के संग से धन की तृष्णा मिट जाने पर धनियों की अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है।</ref>। जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान् के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है ? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं<ref>धन स्वयं एक दोष है। सातवें स्कन्ध में कहा है कि जितने पेट भर जाय, उससे अधिक को अपना मानने वाला चोर है और दण्ड का पात्र है—‘स स्तेनो दण्डमर्हति।’ भगवान् भी कहते हैं—जिस पर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ। इसी से सत्पुरुष प्रायः धनियों की उपेक्षा करते हैं।</ref>।  ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं । इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान् की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान् के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे ।


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायण के आश्रम पर चले गये। नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे । भगवान् ने सोंचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा’।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायण के आश्रम पर चले गये<ref>#
शाप वरदान से तपस्या क्षीण होती है। नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देने के पश्चात् नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करने का यह अभिप्राय है कि फिर से तपःसंचय कर लिया जाय।<br />
#मैंने यक्षों पर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये।<br />
#अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायण के सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करने के लिये।
</ref>। नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे । भगवान् ने सोंचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा’<ref> भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कृपा दृष्टि उन्हें मुक्त कर सकते थे। परन्तु वृक्षों के पास जाने का कारण यह है कि देवर्षि नारद ने कहा था तुम्हें वासुदेव का सान्निधि प्राप्त होगा।</ref>।


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१०:०७, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद

जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ।

जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गड़ने की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होने वाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता ।

दरिद्र में घमण्ड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। बल्कि देववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या भी है ।

जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं—उसकी हिंसा नहीं करता ।

यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है[१]। जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान् के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है ? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं[२]। ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं । इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान् की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान् के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायण के आश्रम पर चले गये[३]। नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे । भगवान् ने सोंचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा’[४]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धनी पुरुष में तीन दोष होते हैं—धन, धन का अभिमान और धन की तृष्णा। दरिद्र पुरुष में पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है। इसलिये सत्पुरुषों के संग से धन की तृष्णा मिट जाने पर धनियों की अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है।
  2. धन स्वयं एक दोष है। सातवें स्कन्ध में कहा है कि जितने पेट भर जाय, उससे अधिक को अपना मानने वाला चोर है और दण्ड का पात्र है—‘स स्तेनो दण्डमर्हति।’ भगवान् भी कहते हैं—जिस पर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ। इसी से सत्पुरुष प्रायः धनियों की उपेक्षा करते हैं।
  3. # शाप वरदान से तपस्या क्षीण होती है। नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देने के पश्चात् नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करने का यह अभिप्राय है कि फिर से तपःसंचय कर लिया जाय।
    1. मैंने यक्षों पर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये।
    2. अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायण के सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करने के लिये।
  4. भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कृपा दृष्टि उन्हें मुक्त कर सकते थे। परन्तु वृक्षों के पास जाने का कारण यह है कि देवर्षि नारद ने कहा था तुम्हें वासुदेव का सान्निधि प्राप्त होगा।

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