"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 19-32" के अवतरणों में अंतर

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राजा निमि ने पूछ—योगीश्वरों! आप लोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान् किस समय किस रंग का, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं ।
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राजा निमि ने पूछ—योगीश्वरों! आप लोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान  किस समय किस रंग का, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं ।
  
अब नवें योगीश्वर करभाजनजी ने कहा—राजन्! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगों में भगवान् के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है । सत्ययुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं । सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं । वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामों के द्वारा भगवान् के गुण, लीला आदि का गान करते हैं । राजन्! त्रेतायुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्त्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं । उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखने वाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदयत्री के द्वारा सर्वदेवस्वरुप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरि की आराधना करते हैं ।
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अब नवें योगीश्वर करभाजनजी ने कहा—राजन्! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगों में भगवान  के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है । सत्ययुग में भगवान  के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं । सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं । वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामों के द्वारा भगवान  के गुण, लीला आदि का गान करते हैं । राजन्! त्रेतायुग में भगवान  के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्त्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं । उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखने वाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदयत्री के द्वारा सर्वदेवस्वरुप देवाधिदेव भगवान  श्रीहरि की आराधना करते हैं ।
  
त्रेतायुग में अधिकांश लोग विष्णु, यज्ञ, प्रष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं । राजन्! द्वारपरयुग में भगवान् के श्रीविग्रह का रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं । राजन्! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिन्ह, छत्र, चँवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान् की वैदिक और तान्त्रिक विधि से आराधना करते हैं । वे लोग इस प्रकार भगवान् की स्तुति करते हैं—हे ज्ञानस्वरुप भगवान् वासुदेव एवं क्रिया शक्ति रूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान् प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान् को हम नमस्कार करते हैं । राजन्! द्वापरयुग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान् स्तुति करते हैं। अब कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान् की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो—
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त्रेतायुग में अधिकांश लोग विष्णु, यज्ञ, प्रष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं । राजन्! द्वारपरयुग में भगवान  के श्रीविग्रह का रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं । राजन्! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिन्ह, छत्र, चँवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान  की वैदिक और तान्त्रिक विधि से आराधना करते हैं । वे लोग इस प्रकार भगवान  की स्तुति करते हैं—हे ज्ञानस्वरुप भगवान  वासुदेव एवं क्रिया शक्ति रूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान  प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान  को हम नमस्कार करते हैं । राजन्! द्वापरयुग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान  स्तुति करते हैं। अब कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान  की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो—
  
कलियुग में भगवान् का श्रीविग्रह होता है कृष्ण-वर्ण—काले रंग का। जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे ह्रदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है ।
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कलियुग में भगवान  का श्रीविग्रह होता है कृष्ण-वर्ण—काले रंग का। जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे ह्रदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है ।
  
 
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१२:३१, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद


राजा निमि ने पूछ—योगीश्वरों! आप लोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान किस समय किस रंग का, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं ।

अब नवें योगीश्वर करभाजनजी ने कहा—राजन्! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगों में भगवान के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है । सत्ययुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं । सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं । वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामों के द्वारा भगवान के गुण, लीला आदि का गान करते हैं । राजन्! त्रेतायुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्त्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं । उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखने वाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदयत्री के द्वारा सर्वदेवस्वरुप देवाधिदेव भगवान श्रीहरि की आराधना करते हैं ।

त्रेतायुग में अधिकांश लोग विष्णु, यज्ञ, प्रष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं । राजन्! द्वारपरयुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं । राजन्! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिन्ह, छत्र, चँवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान की वैदिक और तान्त्रिक विधि से आराधना करते हैं । वे लोग इस प्रकार भगवान की स्तुति करते हैं—हे ज्ञानस्वरुप भगवान वासुदेव एवं क्रिया शक्ति रूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान को हम नमस्कार करते हैं । राजन्! द्वापरयुग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान स्तुति करते हैं। अब कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो—

कलियुग में भगवान का श्रीविग्रह होता है कृष्ण-वर्ण—काले रंग का। जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे ह्रदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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