"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 66 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर

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पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार  
पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार  


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करुष देश के अज्ञानी राजा पौण्ड्रक ने भगवान् ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान् वासुदेव मैं हूँ’। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान् वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान् मान बैठा । जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान् श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकार द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया । पौण्ड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया—
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान  बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करुष देश के अज्ञानी राजा पौण्ड्रक ने भगवान  ने भगवान  श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान  वासुदेव मैं हूँ’। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान  वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान  मान बैठा । जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान  श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकार द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया । पौण्ड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान  श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया—


‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो । यदुवंशी! तुमने मुर्खता वश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’।
‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो । यदुवंशी! तुमने मुर्खता वश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’।


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोर से हँसने लगे । उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने दूत से कहा—‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिन्ह यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे’। परीक्षित्! भगवान् का यह तिरस्कार पूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करुष का राजा उन दिनों वहीँ अपने मित्र काशिराज के पास रहता था) ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोर से हँसने लगे । उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान  श्रीकृष्ण ने दूत से कहा—‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिन्ह यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे’। परीक्षित्! भगवान  का यह तिरस्कार पूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान  श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करुष का राजा उन दिनों वहीँ अपने मित्र काशिराज के पास रहता था) ।


भगवान् श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया । काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्! अब भगवान् श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा । पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्सं चिन्ह आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही थी । उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिन्ह भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे ।
भगवान  श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया । काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्! अब भगवान  श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा । पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्सं चिन्ह आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही थी । उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिन्ह भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे ।





१२:३९, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध:षट्षष्टितमोऽध्यायः (66) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्षष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद



पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करुष देश के अज्ञानी राजा पौण्ड्रक ने भगवान ने भगवान श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान वासुदेव मैं हूँ’। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा । जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकार द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया । पौण्ड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया—

‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो । यदुवंशी! तुमने मुर्खता वश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोर से हँसने लगे । उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने दूत से कहा—‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिन्ह यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे’। परीक्षित्! भगवान का यह तिरस्कार पूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करुष का राजा उन दिनों वहीँ अपने मित्र काशिराज के पास रहता था) ।

भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया । काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्! अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा । पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्सं चिन्ह आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही थी । उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिन्ह भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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