"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 73 श्लोक 13-24": अवतरणों में अंतर

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सच्चिन्दानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! काल की गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसी के टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हम लोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ।विभो! यह शरीर दिनोंदिन क्षीण होता जा रहा है। रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीर से भोगे जाने वाले राज्य की अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मरने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं । अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े । प्रणाम करने वालों के क्लेश का नाश करने वाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ।  
सच्चिन्दानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! काल की गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसी के टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हम लोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ।विभो! यह शरीर दिनोंदिन क्षीण होता जा रहा है। रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीर से भोगे जाने वाले राज्य की अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मरने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं । अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े । प्रणाम करने वालों के क्लेश का नाश करने वाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ।  


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागत रक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा ।  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान  श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागत रक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा ।  


भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—नरपतियों! तुम लोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझमें तुम लोगों का निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ। नरपतियों! तुम लोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है। तुम लोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छ्रंखल और मतवाले हो जाते हैं । हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये । तुम लोग यह समज लो कि शरीर और और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो । तुम लोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि—जो कुछ प्राप्त हों, उन्हें समान भाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ।देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन हो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुम लोग मुझ ब्रम्हस्वरुप को ही प्राप्त हो जाओगे ।  
भगवान  श्रीकृष्ण ने कहा—नरपतियों! तुम लोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझमें तुम लोगों का निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ। नरपतियों! तुम लोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है। तुम लोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छ्रंखल और मतवाले हो जाते हैं । हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये । तुम लोग यह समज लो कि शरीर और और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो । तुम लोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि—जो कुछ प्राप्त हों, उन्हें समान भाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ।देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन हो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुम लोग मुझ ब्रम्हस्वरुप को ही प्राप्त हो जाओगे ।  


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भुवनेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ।  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भुवनेश्वर भगवान  श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ।  





१२:४१, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितमोऽध्यायः(73) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


सच्चिन्दानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! काल की गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसी के टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हम लोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ।विभो! यह शरीर दिनोंदिन क्षीण होता जा रहा है। रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीर से भोगे जाने वाले राज्य की अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मरने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं । अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े । प्रणाम करने वालों के क्लेश का नाश करने वाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागत रक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—नरपतियों! तुम लोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझमें तुम लोगों का निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ। नरपतियों! तुम लोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है। तुम लोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छ्रंखल और मतवाले हो जाते हैं । हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये । तुम लोग यह समज लो कि शरीर और और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो । तुम लोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि—जो कुछ प्राप्त हों, उन्हें समान भाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ।देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन हो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुम लोग मुझ ब्रम्हस्वरुप को ही प्राप्त हो जाओगे ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भुवनेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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