"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 78 श्लोक 13-27": अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी विजय के गीत गा रहे थे। भगवान् के प्रवेश के अवसर पर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे । योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओं के समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तव में तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ।  
इस प्रकार भगवान  श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी विजय के गीत गा रहे थे। भगवान  के प्रवेश के अवसर पर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे । योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान  श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओं के समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तव में तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ।  
एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारका से चले गये । वहाँ से चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्र में स्नान किया और तर्पण तथा ब्राम्हणभोजन के द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्यों को तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राम्हणों के साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े । वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रम्हतीर्थ चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये । परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातट के प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे ।
एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारका से चले गये । वहाँ से चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्र में स्नान किया और तर्पण तथा ब्राम्हणभोजन के द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्यों को तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राम्हणों के साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े । वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रम्हतीर्थ चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये । परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातट के प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे ।
दीर्घकाल तक सत्संग सत्र का नियम लेकर बैठे हुए ऋषियों ने बलरामजी को आया देख अपने-अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की । वे अपने साथियों के साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान् व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दी पर बैठे हुए हैं । बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होने पर भी उन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से ऊँचें आसन पर बैठे हुए हैं और उनके आने पर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इस पर बलरामजी को क्रोध आ गया । वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जाति का होने पर भी इन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से तथा धर्म के रक्षक हम लोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्ड का पात्र है । भगवान् व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रों का अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मन पर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजातितात्मा ने झूठमूठ अपने को बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँग के लिये है। उससे न ही इसका सारा है और न किसी दूसरे का ।
दीर्घकाल तक सत्संग सत्र का नियम लेकर बैठे हुए ऋषियों ने बलरामजी को आया देख अपने-अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की । वे अपने साथियों के साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान  व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दी पर बैठे हुए हैं । बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होने पर भी उन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से ऊँचें आसन पर बैठे हुए हैं और उनके आने पर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इस पर बलरामजी को क्रोध आ गया । वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जाति का होने पर भी इन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से तथा धर्म के रक्षक हम लोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्ड का पात्र है । भगवान  व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रों का अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मन पर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजातितात्मा ने झूठमूठ अपने को बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँग के लिये है। उससे न ही इसका सारा है और न किसी दूसरे का ।
जो लोग धर्म का चिन्ह धारण करते हैं, परन्तु धर्म का पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत् में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ।
जो लोग धर्म का चिन्ह धारण करते हैं, परन्तु धर्म का पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत् में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ।



१२:४२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: अष्टसप्ततितमोऽध्यायः(78) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:अष्टसप्तसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी विजय के गीत गा रहे थे। भगवान के प्रवेश के अवसर पर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे । योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओं के समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तव में तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं । एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारका से चले गये । वहाँ से चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्र में स्नान किया और तर्पण तथा ब्राम्हणभोजन के द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्यों को तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राम्हणों के साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े । वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रम्हतीर्थ चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये । परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातट के प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे । दीर्घकाल तक सत्संग सत्र का नियम लेकर बैठे हुए ऋषियों ने बलरामजी को आया देख अपने-अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की । वे अपने साथियों के साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दी पर बैठे हुए हैं । बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होने पर भी उन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से ऊँचें आसन पर बैठे हुए हैं और उनके आने पर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इस पर बलरामजी को क्रोध आ गया । वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जाति का होने पर भी इन श्रेष्ठ ब्राम्हणों से तथा धर्म के रक्षक हम लोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्ड का पात्र है । भगवान व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रों का अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मन पर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजातितात्मा ने झूठमूठ अपने को बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँग के लिये है। उससे न ही इसका सारा है और न किसी दूसरे का । जो लोग धर्म का चिन्ह धारण करते हैं, परन्तु धर्म का पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत् में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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