"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 57-61": अवतरणों में अंतर
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०६:१५, २ अगस्त २०१५ का अवतरण
द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
प्रजापति दक्ष से साठ कन्याएँ थीं। उनमें से तरह का विवाह उन्होंने कश्यपजी के साथ कर दिया। दस कन्याएँ धर्म को, दस मनु को और सत्ताइस कन्याएँ चन्द्रमा को दे डालीं। उन सत्ताइस कन्याओं की नक्षत्र नाम से प्रसिद्धि हुई। यद्यपि वे सब-की-सब एक समान रूपवती थीं तो भी चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणी पर ही प्रेम करने लगे। यह देख शेष पत्नियों के मन मे ईष्र्या हुई और उन्होंने पिता के समीप जाकर यह बात बतायी- ‘भगवन् ! हम सब बहिनों का प्रभाव एक सा है तो भी चन्द्रदेव राहिणी पर ही अधिक स्नेह रचाते हैं।’ यह सुनकर दक्ष ने कहा- ‘इनके भीतर यक्ष्मा ने प्रवेश होगा।’ इस प्रकार ब्राह्मण दक्ष के शाप से राजा सोम के शरीर में यक्ष्मा ने प्रवेश किया। यक्ष्मा से ग्रस्त होकर राजा सोम प्रजापति दक्ष के पास गये। रोष का कारण पूछने पर दक्ष ने उनसे कहा- ‘तुम अपनी सभी पत्नियों के प्रति समान बर्ताव नहीं रखते हो, उसी का यह दण्ड है।- वहाँ दूसरे ऋषियों ने सोम से कहा- ‘तुम यक्ष्मा से क्षीण होते चले जा रहे हो। अतः पश्चिम दिशा में समुद्र के तटपर जो हिसण्यसर नामक तीर्थ है, वहाँ जाकर अपने-आपको स्नान कराओ।’ तब सोम ने हिरण्यसर तीर्थ में जाकरवहाँ स्नान किया। स्नान करके उन्होंने अपने-आपको पाप से छुड़ाया। उस तीर्थ में वे दिव्य प्रभा से प्रभासित हो उठे थे, इसलिये उसी समय से वह स्थान प्रभासतीर्थ के नाम ये विख्यात हो गया। उसी शाप से आज भी चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में अमावस्या तक क्षीण होता रहता है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक उसकी वृद्धि होती रहती है। उसका मण्डलाकार स्वरूप मेघ की श्याम रेखा से आछन्न-सा दिखासी देता है। उसके शरीर में खरगोश-सा विन्ह मेघ के समान श्यामवर्ण का है। वह स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। पूर्वकाल की बात है, मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर भाग में स्थूलशिरा नामक महर्षि बड़ी भारी तपस्या कर रहे थें उनके तपसया करते समय सब प्रकार सुगन्ध लिये पवित्र वायु बहने लगी। उस वायु ने प्रवाहित होकर मुनि के शरीर कर सपर्श किया। तपस्या से संतप्त शरीर वाले उन कृशकाय मुनि ने उस वायु वीजित हो अपने हृदय में बड़े संतोष का अनुभव किया। वायु के द्वारा व्यजन डुलाने से संतुष्ट हुए मुनि के समक्ष वृक्षों ने तत्काल फूल की शोभा दिखलायी। इससे रुष्ट होकर मुनि ने उन्हें शाप दिया कि तुम हर समय फूलों से भरे-पूरे नहीं रहोगे। एक समय भगवान नारायण लोकहित के लिये बडवामुख नामक महर्षि हुए। जब े मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने समुद्र का आव्हान किया; किन्तु वह नहीं आया। इससे अमर्ष में भरकर उन्होंने अपने शरीर की गर्मी से समुद्र को चंचल कर दिया और पसीने के प्रवाह की भाँति उसमें खारापन प्रकट कर दिया। साथ ही उससे कहा- ‘समुद्र ! तू पीने योग्य नहीं रह जायगा। तेरा यह जल बडवामुख के द्वारा बारंबार पीया जाने पर मधुर होगा।’ यह बात आज भी देखने में आती है। बडवामुखसंज्ञक अग्नि समुद्र से जल लेकर पीती है।
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